Tuesday, June 30, 2020

नागरिक आंदोलन या राष्ट्रविरोधी साजिश


संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति दिल्ली दंगों की साजिश के आरोपियों को छोड़ने का दबाव बना रही है। यूएनएचआरसी की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि दिल्ली पुलिस ने छात्रों और नागरिक समाज के लोगों को नागरिकता कानून का विरोध करने की वजह से गिरफ्तार किया है और यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। कमाल की बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति के बयान में दिल्ली में हुए दंगों का कोई जिक्र नहीं है। दिल्ली में हुए दंगों में 59 लोगों की जानें चली गईं और जाने कितने लोगों के जानमाल का नुकसान हुआ। और, अब दिल्ली पुलिस एक-एक करके दिल्ली दंगों की साजिश करने वालों को गिरफ्तार कर रही है और उनके खिलाफ अभियोग पत्र दाखिल कर रही है। दिल्ली पुलिस ने देवांगना कलीता और नताशा नरवाल को नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन में शामिल होने की वजह से नहीं गिरफ्तार किया है। दिल्ली पुलिस के अभियोग पत्र से स्पष्ट है कि दिल्ली दंगे स्वत:स्फूर्त घटना नहीं थे बल्कि नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन की बुनियाद पर योजनाबद्ध तरीके से इसकी साजिश की गई थी और इसकी साजिश के तार छात्र संगठन के नाम पर काम करने वाले पिंजरा तोड़ जैसे संगठनों से भी जुड़े हैं। अब संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति के उन सभी लोगों की गिरफ्तारी पर चिंता जाहिर करना जो दिल्ली दंगों की साजिश से जुड़ बताए जा रहे हैं, इस साजिश में अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के जुड़े होने की ओर स्पष्ट इशारा करता है।
छात्रा हितों के लिए देश भर के विश्वविद्यालयों की छात्राओं आन्दोलन में शामिल होती हैं, लेकिन पिंजरातोड़ की नताशा नरवाल और देवांगना कलीता ने छात्राओं के हितों के आन्दोलन को पहले नागरिकता कानून विरोधी आन्दोलन और बाद में दिल्ली में अराजकता फैलाने वाले प्रदर्शन में इस्तेमाल कर लिया। इसी पिंजरा तोड़ संगठन की दो प्रमुख महिलाओं नताशा नरवाल और देवांगना कलीता को दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया है और इन दोनों के ऊपर बेहद गम्भीर आरोप हैं। दोनों पर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में आरोप लगाया गया है कि इन्होंने लोगों को भड़काकर जाफराबाद में भीड़ इकट्ठा की। दिल्ली दंगों की चार्जशीट में जामिया कोऑर्डिनेश समिति की सदस्य सफूरा जरगर की गिरफ्तारी को मुद्दा बनाकर इसे दिल्ली पुलिस का मुसलमानों के प्रति दमनकारी रवैये के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, लेकिन सच यह है कि नताशा नरवाल और देवांगना कलीता मुसलमान नहीं हैं और ऐसे ही दिल्ली दंगों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल होने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने जितने लोगों को गिरफ्तार किया है, उसमें हिन्दू और मुसलमान की संख्या लगभग बराबर है।   
नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शन की आड़ में दिल्ली दंगों में शामिल लोगों की गिरफ्तारी के बाद एक देशव्यापी साजिश स्पष्ट तौर पर नजर आ रही है। सच यही है कि देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में छात्राओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय और छात्रावास प्रशासन एक समय के बाद किसी भी छात्रा को छात्रावास से बाहर रहने की स्वीकृति नहीं देता है। खासकर स्नातक छात्राओं के लिए इस तरह के नियम देशभर में हैं और छात्राओं के साथ अभिभावकों को भी इससे सुरक्षा का अहसास होता है, लेकिन पिंजरातोड़ संगठन ने इसी व्यवस्था का शीर्षासन करा दिया और दिल्ली के मिरांडा और सेंट स्टीफन से शुरू हुआ छात्रा अधिकारों का यह संगठन देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्राओं को प्रशासन के खिलाफ उनके अधिकारों की बात करके खड़ा करने की कोशिश करता दिखा। पहली नजर में इसमें कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन जब पिंजरा तोड़ संगठन की पिछले 3-4 वर्षों की गतिविधियों पर नजर डाली डाए तो समझ आता है कि पिंजरा तोड़ छात्राओं को बंधन से मुक्ति दिलाने से बहुत आगे निकल गया था। जेएनयू में पिंजरातोड़ 2016 में कश्मीर की आजादी के लिए आन्दोलन करने लगता है और जम्मू कश्मीर लद्दाख से अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद दिल्ली में वामपंथी छात्र संगठनों के साथ जम्मू कश्मीर लद्दाख से अनुच्छेद 370 खत्म करने का विरोध करता है। नारावादी से मानवाधिकारवादी और धीरे-धीरे पिंजरातोड़ संगठन, भारतीय समाज और भारत को तोड़ने वाले संगठन में कब बदल गया, इसका अनुमान शायद पिंजरातोड़ के ज्यादातर आन्दोलनकारियों को भी नहीं होगा और नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शनों के समय पिंजरा तोड़ का देशविरोधी चरित्र सामने दिखने लगा।
नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शनों में पिंजरातोड़, जेएनयू छात्रसंघ, जामि. कोऑर्डिनेशन कमेटी और वामपंथी छात्र संगठनों के साथ बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहा था। छात्रा हित कहां पीछे छूट गये, पता ही नहीं चल रहा था। नताशा नरवाल और देवांगना कलीता दोनों ही हिन्दू हैं, लेकिन नागरिकता कानून को मुस्लिम विरोधी बताते जामिया, जाफराबाद, सीलमपुर और शाहीनबाग के प्रदर्शनों में भीड़ जुटाने के साथ हिन्दू विरोधी प्रदर्शनों का प्रमुख चेहरा बन गईं थीं। पिंजरातोड़ के प्रदर्शनों में महिला हित एकदम से गायब हो चुका था। हिन्दू विरोधी नारे, चित्र इनकी पहचान बन चुके थे। वूमेन विल डिस्ट्रॉय हिन्दू राष्ट्र, मैं भारत की माता नहीं बनूंगी से आगे बढ़कर हिन्दू भावनाओं को भड़काने वाले नारे इनके प्रदर्शनों का चेहरा था। देश के 500 शहरों में उत्पात मचाने और असम को भारत से काटने की बात करने वाले शरजील इमाम की गिरफ्तारी के बाद उसकी रिहाई के लिए भी पिंजरातोड़ आन्दोलन चला रहा था और सबसे खतरनाक कि जाफरबाद में भीड़ जुटाकर उस समय कानून व्यवस्था खराब करने की कोशिश की, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दिल्ली में थे।
छात्राओं के अधिकार मुक्ति के लिए शुरू हुआ संगठन पूरी तरह से देश विरोधी एजेण्डे पर काम करता दिख रहा था और यहां तक कि इसमें वामपंथी विचारों के अलावा दूसरे किनारे लगने लगे। 20 फरवरी 2019 को पिंजरा तोड़ से दलित छात्राओं के एक समूह ने यह कहते हुए किनारा कर लिया कि पिंजरातोड़ में दलित छात्राओं के अधिकार की कोई बात नहीं होती है और यह विशेष विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए काम करने वाला संगठन है। दिल्ली के प्रतिष्ठित कॉलेजों, मिरांडा हाउस, लेडी श्रीराम कॉलेज, सेंट स्टीफेंस से महिलाओं के लिए समान अधिकारों के नाम पर शुरू हुए इस संगठन ने बड़ी तेजी से देश भर में जगह बना ली, लेकिन अब दिल्ली दंगों में पिंजरा तोड़ की साजिशी भूमिका सामने आने से सिर्फ दलित छात्राओं के मन में ही नहीं, देश भर की छात्राओं के मन में यह सवाल जरूर उठ रहा होगा कि पिंजरा तोड़ उनके अधिकारों के लिए ताकत इकट्ठी कर रहा था या फिर विश्वसनीयता खो चुके वामपंथी संगठनों ने पिंजरा तोड़ का इस्तेमाल भारत तोड़ने वाले प्रदर्शनों के लिए कर लिया है। लैंगिक समानता और सुरक्षित विश्वविद्यालय परिसर के नाम पर शुरू हुआ पिंजरातोड़ आंदोलन अब अतिवादी वामपंथी और कट्टर इस्लामिक ताकतों के हाथ में खेल रहा है और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक देश विरोधी हरकतों में शामिल हो चुका है। जातीय और सांप्रदायिक विभाजन इनकी गतिविधियों का नियमित हिस्सा बन चुका है। पिंजरा तोड़ संगठन की भूमिका को पूरी तरह से उजागर करने की जरूरत है क्योंकि देश के छोटे बड़े शहरों के परिसरों में पिंजरा तोड़ महिला समानता के नाम पर घुस चुका है और अगर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में लगे आरोपों में सच्चाई है तो परिसरों में पिंजरा तोड़ का असली चेहरा भी छात्राओं के सामने आना जरूरी है। दिल्ली दंगों में इनकी भूमिका के बाद संगठन को पिंजरा तोड़ की बजाय भारत तोड़ संगठन कहना उचित रहेगा और अब दिल्ली दंगों के आरोपियों की गिरफ्तारी पर संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार समिति की तरफ से बयान आना देश के आंतरिक मामलों में दखल तो है ही, साथ ही यह भी दिखाता है कि भारत को अस्थिर करने की साजिश कितनी बड़ी है। 
(यह लेख दैनिक जागरण केे राष्ट्रीय संस्करण में 30 जून 2020 को छपा है)

Wednesday, June 24, 2020

दलित राजनीति का एक और चक्र पूरा हो चुका है


बसपा प्रमुख मायावती ने आजमगढ़ में दलितों की बेटियों से उत्पीड़न के मामले में किंतु परंतु के साथ ही सही, लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रशंसा की है। उन्होंने कहाकि दलित बहन बेटियों के साथ हुए उत्पीड़न का मामला हो या अन्य किसी भी जाति व धर्म की बहन बेटी के साथ हुए उत्पीड़न का मामला हो, उसकी जितनी निंदी की जाए, कम है। मायावती का यह बयान सामान्य दिखता है, लेकिन मायावती बदलती दलित राजनीति की उस नब्ज को पकड़ने की कोशिश कर रही हैं जो उनके पारंपरिक दलित-मुस्लिम गठजोड़ से थोड़ा हटकर है। कमाल की बात यह है कि भारतीय राजनीति में दलितों की ठेकेदारी का दावा करने वाले दूसरे राजनीतिक दल, समूह या दलित बुद्धिजीवी के नाम पर प्रतिष्ठा पाने वाले भी इसे समझने को तैयार नहीं हैं। अभी भी दलित राजनीति को मुसलमान के साथ और हिन्दू विरोध में करने की कोशिश उन्हें स्पष्ट तौर पर भारी पड़ रही है और इस राजनीति के चक्कर में उन्हें गुजरात में कई बरस पहले दलित पर हुआ अत्याचार याद रहता है, लेकिन उत्तर प्रदेश के जौनपुर और आजमगढ़ में दलितों का घर फूंकने और दलित बेटियों के साथ उत्पीड़न पर जुबान बंद हो जाती है। और, इसी फर्जी सेक्युलर राजनीति ने दलित राजनीति करने वाले नेताओं का बुरा हाल कर दिया है। इस कदर कि उनकी पहचान ही खत्म होती जा रही है और दलित नेताओं को जनप्रतिनिधि के तौर पर उनके दलित समाज से ही मान्यता मिलती कम होती जा रही है। पहली नजर में यह बात बड़ी अजीब लगती है, लेकिन भारत में दलित राजनीति करने वाले नेताओं की स्थिति दरअसल कुछ ऐसी ही हो गई है, इसे ठीक से समझना जरूरी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने गायक हंसराज हंस को टिकट दिया और उदित राज कांग्रेस के टिकट पर हार गये। यहां यह जानना जरूरी है उदित राज ऑल इंडिया कनफेडरशन ऑफ एससी एसटी ऑर्गनाइजेशंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और भाजपा के टिकट पर सांसद बने हंसराज हंस की कोई दलित पहचान नहीं है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि दलित राजनीति का एक च्कर पूरा हो चुका है। उदित राज भी अपने जीवन में सिर्फ एक बार सांसद बने तो भाजपा के साथ की ही वजह से। उदित राज उदाहरण हैं कि देश में दलितों के नाम पर ठेकेदारी करने वालों को समाज के निचले पायदान पर रह गये लोगों का जीवनस्तर उठाने में कितनी दिलचस्पी है और इसी वजह से दलितों की राजनीति का दावा करने वाले नेताओं का प्रभाव हर बीतते दिन के साथ दलितों में ही घटता जा रहा है। दलित राजनीति करने वाले नेता पहले कांग्रेस पार्टी और अभी सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी का विरोध करके राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू, हिन्दुत्व और मनुवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था को गाली देकर दलित नेता अपनी राजनीति बढ़ाने की भोथरी कोशिश कर रहे हैं। दरअसल दलित राजनीति करने वालों ने दलितों का भरोसा जीतने के बजाय सवर्ण और दूसरी जातियों का भरोसा तोड़ने की राजनीति पर मजबूती से कदम आगे बढ़ाया और यह कदम बढ़ते हुए हिन्दू बनाम दलित तक गया और फिर सेक्युलर राजनीतिक स्थान को भरने की कोशिश में हिन्दू बनाम दलित और आगे जाकर दलित और मुसलमान गठजोड़ के हिन्दू विरोधी होने तक चला गया। फौरी तौर पर और कांग्रेस की घिसी पिटी राजनीति से उकताये और भाजपा में सवर्ण राजनीति का बढ़ा हुआ प्रभाव देखकर कुछ समय तक दलितों ने ऐसे राजनीतिक नेताओं और दलों के साथ अपनी प्रतिबद्धता दिखाई, लेकिन बदलती राजनीति में सामाजिक समीकरण बदले तो राजनीतिक समीकरण पर भी उसका असर स्पष्ट दिखने लगा।
दलित और मुसलमान गठजोड़ की राजनीति से दलित अंदर ही अंदर चिढ़ने लगा था और उसकी बड़ी वजह मुसलमानों के साथ दलित गठजोड़ की बात नहीं थी, उसकी असली वजह दलितों को मुसलमानों के साथ खड़ा करके हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों को उसी के जरिये अपमानित करने की कोशिश थी। सोशल मीडिया पर हिन्दू विरोधी ट्रेंड में दलितों की आड़ लेकर सेक्युलर और कट्टर मुसलमान हिन्दुओं, हिन्दू आराध्यों, हिन्दू प्रतीकों का हर चौथे रोज मजाक बनाने दिखने लगे। जाने-अनजाने हिन्दू विरोधी बनते दलित-मुस्लिम गठजोड़ ने उनको हिन्दुओं के बीच सम्मान दिलाने की जगह दलितों की पहचान, विरासत, संस्कृति ही पूरी तरह से खत्म करना शुरू किया और जब दलित राजनीति करने वाले वोटबैंक तलाशकर दलित-मुसलमान समीकरण तलाश रहे थे, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों के साथ भारतीय जनता पार्टी लगातार दलितों को किसी के विरोध में खड़ा करने के बजाय अपने साथ खड़ा करने की योजना पर काम कर रहा था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत हिन्दू एकता पर काम कर रहे थे। एक मंदिर, एक कुंआ और एक श्मशान के जरिये पूरे हिन्दू समाज को जोड़ने पर काम कर रहे थे। यह भी चौंकाने वाली बात थी कि संघ और पूरा संघ परिवार, जिसमें राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है, जाहिर तौर पर मुसलमान विरोधी दिखने के बजाय हिन्दू एकता के आधार पर आगे बढ़ना चाह रही थी। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि केंद्र में दोबारा भारतीय जनता पार्टी की प्रचण्ड बहुमत की सरकार के साथ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व भी पिछड़ी जाति से आने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास था। मोदी निर्विवाद तौर पर भाजपा के शीर्ष नेता थे और नरेंद्र मोदी की हर योजना की प्राथमिकता में वंचित तबका था और उस वंचित तबके में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसी दलित समाज की थी, जिसे मुसलमान के साथ खड़ा करके दलित राजनीति करने वाले हिन्दू विरोधी कर देना चाह रहे हैं।
दलितों को यह बात स्पष्ट तौर पर समझ आ रही थी। अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयडड की हत्या पर हिंसक प्रदर्शन हुआ तो यहां सेक्युलर जमात मुस्लिम लाइव मैटर जैसा आन्दोलन चलाने की इच्छा जाहिर करने लगी। बाद में इसमें दलित लाइव मैटर भी जोड़ने की कोशिश हुई। इससे पहले नागरिकता कानून के जरिये पड़ोसी मुस्लिम देशों के हिन्दू दलितों को नागरिकता मिलने को भी मुस्लिम विरोधी पेश किया गया। देश के दलितों में यह गहरे बैठ गया कि जिन मुस्लिम देशों में हिन्दू दलित होने की वजह से उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, उन्हीं मुस्लिम देशों के मुसलमानों को भारत में नागरिक बनाने के लिए देश के मुसलमान सड़कों पर बवाल काट रहे थे। दलितों को यह बात स्पष्ट समझ आ रही थी कि जिस भारतीय जनता पार्टी को दलित विरोधी बताया जा रहा था, उस भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं के सवर्ण होते हुए भी दलित नेता रामनाथ कोविंद को प्राथमिकता दे दी। अभी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में भदेठी गांव में मुसलमानों ने दलितों का घर फूंक दिया और दलित नेता सिर्फ इसलिए चुप रहे कि इसमें हिन्दू विरोध, सवर्ण विरोध कहीं नहीं है और उस समय योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सभी दोषियों पर रासुका के तहत कार्रवाई की और दलितों को आर्थिक मदद भी की। और, यह सब तब हो रहा था जब अमेरिकी ब्लैक लाइव मैटर आन्दोलन की तर्ज पर दलित लाइव मैटर चलाकर उसके निशाने पर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और राज्यों की सरकार को लेने की कोशिश हो रही थी। दलित सब स्पष्ट देख पा रहा है, समझ रहा है, इसीलिए 2019 के लोकसभा चुनाव में 131 आरक्षित सीटों में से 77 सीटें भाजपा को जिता दीं। भाजपा की 2014 में आरक्षित सीटों में जीती सीटों में 10 सीटें और जोड़कर 2019 में दलितों ने दे दी। उदित राज भाजपा की वजह से दलितों के जनप्रतिनिधि बन पाये थे और भाजपा से बाहर गये तो दलितों ने उन पर भरोसा नहीं किया। दलित राजनीति का एक चक्र पूरा हो चुका है।

Saturday, June 13, 2020

पिंजरा या भारत तोड़ने की कोशिश ?


इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मुख्य परिसर से सटा हुआ या यूं कह लें कि मुख्य परिसर में ही महिला छात्रावास है। और, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली छात्राएं, महिला छात्रावास से निकलकर सीधे परिसर में आ जातीं थीं, लेकिन यह रास्ता पूरी तरह से उन्हीं छात्राओं के लिए था जो महिला छात्रावास में रहती थीं। महिला छात्रावास में छात्रों या किसी को भी जाने के लिए मुख्य द्वार से ही जाना होता था और इसके लिए बाकायदा सुरक्षा में लगे जवानों के पास नाम वगैरह दर्ज कराकर ही जाया जा सकता था। 90 के दशक तक 3 महिला छात्रावास हुआ करते थे और उन तीनों के पहले छात्रावास अधीक्षिका का कक्ष, छात्रावास कार्यालय होता था, वहीं तक जाकर छात्राओं से मुलाकात होती थी। वर्ष में एक बार विश्वविद्यालय के छात्रों को महिला छात्रावास के अंदर जाने का अवसर मिलता था और वह अवसर होता था छात्रसंघ चुनाव के दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बेहद अनोखे मशाल जुलूस वाले दिन। हर प्रत्याशी अपने जुलूस के साथ महिला छात्रावास में जाता था, जहां छात्राएं, छात्रसंघ प्रत्याशियों के ऊपर फूल फेंकती थीं और जिस नेता के ऊपर ज्यादा गुलाब गिरे, उसकी जीत पक्की मान ली जाती थी। 2003 तक मशाल जुलूस की परम्परा कायम रही, लेकिन उसके बाद तत्कालीन प्रशासन ने इसे बंद करा दिया। हालांकि, ध्यान देने वाली बात यह है कि छात्र राजनीति और छात्रसंघों की छवि खराब होने के बावजूद कभी महिला छात्रावास में मशाल जुलूस के दौरान किसी तरह की अभद्रता की खबर नहीं आई और, जाहिर है कि मशाल जुलूस था तो रात के वक्त ही यह जुलूस महिला छात्रावास पहुंचता था। एक बार वृक्षारोपण कराने के दौरान मुझे अपने साथियों के साथ महिला छात्रावास के अंदर तक जाने का अवसर मिला था। जाहिर है तीनों महिला छात्रावासों के सम्मिलित मुख्य द्वार के सामने लल्ला चुंगी से गुजरते हुए होने वाले रोमांच से कई गुना ज्यादा रोमांच महिला छात्रावास के भीतर पहुंचने से हुआ, लेकिन मुझे ध्यान में नहीं आता कि कभी मैंने यह सुना हो कि महिला छात्रावास की लड़कियों ने इस बात पर हंगामा कर दिया हो कि उन्हें या उनसे मिलने आने वालों को बेरोकटोक आने-जाने नहीं दिया जा रहा है और इसकी वजह से महिला छात्रावास उन्हें पिंजरे की तरह लगते हैं, लेकिन 2015 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्राएं भी अचानक प्रदर्शनकारी हो गईं और पिंजरातोड़ संगठन के आह्वान पर छात्राओं के अधिकारों के लिए लड़ाई में शामिल हो गईं और, अब इसी पिंजरा तोड़ संगठन की दो प्रमुख महिलाओं नताशा नरवाल और देवांगना कलीता को दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया है और इन दोनों के ऊपर बेहद गम्भीर आरोप हैं। दोनों पर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में आरोप लगाया गया है कि इन्होंने लोगों को भड़काकर जाफराबाद में भीड़ इकट्ठा की। दिल्ली दंगों की चार्जशीट में जामिया कोऑर्डिनेश समिति की सदस्य सफूरा जरगर की गिरफ्तारी को मुद्दा बनाकर इसे दिल्ली पुलिस का मुसलमानों के प्रति दमनकारी रवैये के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, लेकिन सच यह है कि नताशा नरवाल और देवांगना कलीता मुसलमान नहीं हैं और ऐसे ही दिल्ली दंगों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर शामिल होने के आरोप में दिल्ली पुलिस ने जितने लोगों को गिरफ्तार किया है, उसमें हिन्दू और मुसलमान की संख्या लगभग बराबर है।   
नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शन की आड़ में दिल्ली दंगों में शामिल लोगों की गिरफ्तारी के बाद एक देशव्यापी साजिश स्पष्ट तौर पर नजर आ रही है, इसीलिए मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास की स्थिति का जिक्र किया। सच यही है कि देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में छात्राओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय और छात्रावास प्रशासन एक समय के बाद किसी भी छात्रा को छात्रावास से बाहर रहने की स्वीकृति नहीं देता है। खासकर स्नातक छात्राओं के लिए इस तरह के नियम देशभर में हैं और छात्राओं के साथ अभिभावकों को भी इससे सुरक्षा का अहसास होता है, लेकिन पिंजरातोड़ संगठन ने इसी व्यवस्था का शीर्षासन करा दिया और दिल्ली के मिरांडा और सेंट स्टीफन से शुरू हुआ छात्रा अधिकारों का यह संगठन देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्राओं को प्रशासन के खिलाफ उनके अधिकारों की बात करके खड़ा करने की कोशिश करता दिखा। पहली नजर में इसमें कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन जब पिंजरा तोड़ संगठन की पिछले 3-4 वर्षों की गतिविधियों पर नजर डाली डाए तो समझ आता है कि पिंजरा तोड़ छात्राओं को बंधन से मुक्ति दिलाने से बहुत आगे निकल गया था। जेएनयू में पिंजरातोड़ 2016 में कश्मीर की आजादी के लिए आन्दोलन करने लगता है और जम्मू कश्मीर लद्दाख से अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद दिल्ली में वामपंथी छात्र संगठनों के साथ जम्मू कश्मीर लद्दाख से अनुच्छेद 370 खत्म करने का विरोध करता है। नारावादी से मानवाधिकारवादी और धीरे-धीरे पिंजरातोड़ संगठन, भारतीय समाज और भारत को तोड़ने वाले संगठन में कब बदल गया, इसका अनुमान शायद पिंजरातोड़ के ज्यादातर आन्दोलनकारियों को भी नहीं होगा और नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शनों के समय पिंजरा तोड़ का देशविरोधी चरित्र सामने दिखने लगा।
नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शनों में पिंजरातोड़, जेएनयू छात्रसंघ, जामि. कोऑर्डिनेशन कमेटी और वामपंथी छात्र संगठनों के साथ बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहा था। छात्रा हित कहां पीछे छूट गये, पता ही नहीं चल रहा था। नताशा नरवाल और देवांगना कलीता दोनों ही हिन्दू हैं, लेकिन नागरिकता कानून को मुस्लिम विरोधी बताते जामिया, जाफराबाद, सीलमपुर और शाहीनबाग के प्रदर्शनों में भीड़ जुटाने के साथ हिन्दू विरोधी प्रदर्शनों का प्रमुख चेहरा बन गईं थीं। पिंजरातोड़ के प्रदर्शनों में महिला हित एकदम से गायब हो चुका था। हिन्दू विरोधी नारे, चित्र इनकी पहचान बन चुके थे। वूमेन विल डिस्ट्रॉय हिन्दू राष्ट्र, मैं भारत की माता नहीं बनूंगी से आगे बढ़कर हिन्दू भावनाओं को भड़काने वाले नारे इनके प्रदर्शनों का चेहरा था। देश के 500 शहरों में उत्पात मचाने और असम को भारत से काटने की बात करने वाले शरजील इमाम की गिरफ्तारी के बाद उसकी रिहाई के लिए भी पिंजरातोड़ आन्दोलन चला रहा था और सबसे खतरनाक कि जाफरबाद में भीड़ जुटाकर उस समय कानून व्यवस्था खराब करने की कोशिश की, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प दिल्ली में थे।
छात्राओं के अधिकार मुक्ति के लिए शुरू हुआ संगठन पूरी तरह से देश विरोधी एजेण्डे पर काम करता दिख रहा था और यहां तक कि इसमें वामपंथी विचारों के अलावा दूसरे किनारे लगने लगे। 20 फरवरी 2019 को पिंजरा तोड़ से दलित छात्राओं के एक समूह ने यह कहते हुए किनारा कर लिया कि पिंजरातोड़ में दलित छात्राओं के अधिकार की कोई बात नहीं होती है और यह विशेष विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए काम करने वाला संगठन है। दिल्ली के प्रतिष्ठित कॉलेजों, मिरांडा हाउस, लेडी श्रीराम कॉलेज, सेंट स्टीफेंस से महिलाओं के लिए समान अधिकारों के नाम पर शुरू हुए इस संगठन ने बड़ी तेजी से देश भर में जगह बना ली, लेकिन अब दिल्ली दंगों में पिंजरा तोड़ की साजिशी भूमिका सामने आने से सिर्फ दलित छात्राओं के मन में ही नहीं, देश भर की छात्राओं के मन में यह सवाल जरूर उठ रहा होगा कि पिंजरा तोड़ उनके अधिकारों के लिए ताकत इकट्ठी कर रहा था या फिर विश्वसनीयता खो चुके वामपंथी संगठनों ने पिंजरा तोड़ का इस्तेमाल भारत तोड़ने वाले प्रदर्शनों के लिए कर लिया है। लैंगिक समानता और सुरक्षित विश्वविद्यालय परिसर के नाम पर शुरू हुआ पिंजरातोड़ आंदोलन अब अतिवादी वामपंथी और कट्टर इस्लामिक ताकतों के हाथ में खेल रहा है और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक देश विरोधी हरकतों में शामिल हो चुका है। जातीय और सांप्रदायिक विभाजन इनकी गतिविधियों का नियमित हिस्सा बन चुका है। पिंजरा तोड़ संगठन की भूमिका को पूरी तरह से उजागर करने की जरूरत है क्योंकि देश के छोटे बड़े शहरों के परिसरों में पिंजरा तोड़ महिला समानता के नाम पर घुस चुका है और अगर दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में लगे आरोपों में सच्चाई है तो परिसरों में पिंजरा तोड़ का असली चेहरा भी छात्राओं के सामने आना जरूरी है। दिल्ली दंगों में इनकी भूमिका के बाद संगठन को पिंजरा तोड़ की बजाय भारत तोड़ संगठन कहना उचित रहेगा।  
(यह लेख 13 जून 2020 को इंदौर से निकलने वाले अखबार प्रजातंत्र में छपा है)

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

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