Sunday, November 06, 2016

टाटा का “मॉडल” बदलने के चक्कर में लगे “मिस्त्री” बदल दिए गए

टाटा समूह के बारे में आम धारणा ये है कि टाटा हिन्दुस्तान की सबसे प्रतिष्ठित कंपनी है और रतन टाटा इस देश के सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी। इसकी पक्की बुनियाद भी रही है। कंपनी के इतिहास में मुनाफे से ज्यादा साख कमाने पर जोर रहा। इसीलिए भले ही मुकेश अंबानी देश के सबसे अमीर उद्योगपति हों, लेकिन जब साख की बात आती है, तो रतन टाटा के आसपास देश का कोई भी कारोबारी नहीं नजर आता। समूह की साख और समूह का संस्कार ही टाटा समूह में ऐसे तख्तापलट की वजह बन गया, जो कंपनी की साख पर भारी पड़ता नजर आ रहा है। दुनिया के कारोबारी जगत में इस तरह का तख्तापलट कभी नहीं हुआ। हां, इस तख्तापलट की बुनियाद बड़ी उल्टी है। तख्तापलट आमतौर पर सैन्य या राजनीतिक स्थिति में नीचे के कमांडर करते हैं। लेकिन, टाटा समूह में समूह में 4 साल पहले मार्गदर्शक की भूमिका में आ गए रतन टाटा ने खुद सेनापति को ही हटा दिया। ये सेनापति ऐसा था जिस पर न सिर्फ रतन टाटा को बल्कि पूरे टाटा ट्रस्ट को भरोसा था। वो रतन टाटा और दोराबजी टाटा ट्रस्ट जो दरअसल टाटा समूह का असल मालिक है। 66% से ज्यादा हिस्सेदारी के साथ। और इस भरोसे की कई बड़ी वजहें थीं। ये सही बात थी कि टाटा समूह किसी गैर टाटा को पूरे समूह का चेयरमैन बनाने का इतना बड़ा भरोसा कैसे कर सकता था। लेकिन, टाटा और मिस्त्री परिवार के नजदीकी रिश्ते, इसकी बड़ी वजह थे ही। साथ ही रतन टाटा का साइरस मिस्त्री पर भरोसा टाटा समूह में हर कोई जानता था। इसीलिए जब रतन टाटा ने 2011 में इस बात का एलान किया कि साइरस मिस्त्री अगले साल से टाटा समूह के चेयरमैन होंगे, तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। फिर सिर्फ 4 साल में ऐसा क्या हो गया कि टाटा समूह के चेयरमैन से खुद इस्तीफा देकर साइरस को कमान सौंपने वाले रतन टाटा ड्राइविंग सीट पर आ गए। ऐसा नहीं है कि 24 अक्टूबर को अचानक टाटा संस के बोर्ड ने साइरस मिस्त्री को हटाने का फैसला कर लिया। दरअसल साइरस मिस्त्री की कार्यप्रणाली से रतन टाटा और टाटा संस की नाराजगी लगातार बढ़ रही थी। कुछ समय पहले ही टाटा संस के बोर्ड में टीवीएस चेयरमैन वेणु श्रीनिवासन और बेन कैपिटल के मैनेजिंग डायरेक्टर अमित चंद्रा के आने को इस फैसले तक पहुंचने की प्रक्रिया के तौर पर ही देखा जा रहा है। इन दोनों लोगों के बोर्ड में शामिल होने की जानकारी तक मिस्त्री को नहीं थी। इसीलिए जब साइरस मिस्त्री को हटाने का फैसला टाटा संस के बोर्ड ने लिया, तो इसकी खबर टाटा समूह के बड़े अधिकारियों को भी टीवी चैनलों के जरिये ही मिली। टाटा संस के 9 में से 6 डायरेक्टरों ने मिस्त्री को हटाने के पक्ष में वोट किया। जबकि, दो डायरेक्टर बैठक से बाहर रहे। खुद मिस्त्री इस बैठक में नहीं थे।

साइरस मिस्त्री को हटाए जाने के पीछे की वजहों की ढेर सारी कहानियां बांबे हाउस के इर्द गिर्द घूम रही हैं। लेकिन, सबसे बड़ी वजह यही कि साइरस मिस्त्री लंबे समय टाटा समूह में काम करने के बाद भी शायद टाटा समूह को आत्मसात नहीं कर सके थे। और इसीलिए टाटा समूह को साइरस टाटा समूह के बजाए दूसरे समूहों के मुकाबले चलाने की कोशिश करने लगे। टाटा समूह का कारोबारी मॉडल बदल देने की यही कोशिश साइरस मिस्त्री पर भारी पड़ गई और टाटा ट्रस्ट ने बहुमत के फैसले से मिस्त्री को ही बदल दिया। संदेश साफ है कि फिलहाल टाटा समूह अपने उसूलों को बदलने वाला नहीं। टाटा समूह के पारंपरिक संस्कार और साइरस मिस्त्री के संस्कारों को फर्क समझने के लिए दो बड़े समझौते देखने की जरूरत है। रतन टाटा ने रतन टाटा ने चेयरमैन रहते कोरस का अधिग्रहण किया था और चेयरमैन साइरस मिस्त्री ने डोकोमो के साथ हाथ मिलाया था। दरअसल यही दोनों कारोबारी समझौते टाटा समूह के संस्कार के साथ साइरस मिस्त्री के टा-टा कर दिए जाने की कहानी बयां कर देते हैं। कॉर्पोरेट गलियारे में ये कहानी आम हो चुकी है कि टाटा ने उस समय कोरस को खरीदने के लिए क्रेडिट सुइस के साथ समझौता किया था। क्रेडिट सुइस ने टाटा को एक फाइनेंशियल पैकेज का प्रस्ताव दिया था। टाटा ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इसी बीच दो और अंतर्राष्ट्रीय बैंकों ने टाटा स्टील को 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर बचाने वाले फाइनेंशियल पैकेज का प्रस्ताव दे दिया। टाटा स्टील को ये प्रस्ताव बेहतर लगा और उन्होंने क्रेडिट सुइस के बजाए नए प्रस्ताव स्वीकार कर लिए। इस पर क्रेडिट सुइस ने टाटा स्टील को चिट्ठी लिखकर 120 मिलियन डॉलर देने को कहा। इसके साथ वो समझौता भी था, जिसमें साफ लिखा था कि टाटा स्टील फाइनेंस ले या न ले, उसे ये रकम देनी होगी। टाटा स्टील के अधिकारी क्रेडिट सुइस को इतनी बड़ी रकम बेवजह देने को तैयार नहीं थे। लेकिन, जब ये मामला टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा के पास पहुंचा, तो उन्होंने कहाकि अगर हमने एक बार किसी को कोई वादा किया, तो उसे पूरा करेंगे। टाटा स्टील ने क्रेडिट सुइस को 120 मिलियन डॉलर दिया और दूसरे बैंक से सस्ते कर्ज का समझौता किया। ये टाटा समूह का संस्कार था। जिसे आगे बढ़ाने में नए चेयरमैन साइरस मिस्त्री नाकाम रहे। मूलत: विशुद्ध ठेकेदारी कारोबारी घराने से आए साइरस मिस्त्री हर लगाई रकम पर मुनाफा कमाने की रणनीति बनाने लगे। और इसी रणनीति की वजह से टाटा का जापानी कंपनी के साथ समझौता टूट गया। डोकोमो के साथ समझौता भर नहीं टूटा, टाटा समूह के स्थापित संस्कारों पर भी चोट पहुंची। जापानी कंपनी ने लड़ाई जीती और टाटा समूह पर जानबूझकर शर्तों को तोड़ने का आरोप लगाया। ये टाटा समूह से साइरस मिस्त्री के जाने की सबसे पक्की बुनियाद थी।

डोकोमो के साथ हुए समझौते के गलत तरीके से टूटने और इसकी वजह से टाटा समूह की छवि को ठेस पहुंचना सबसे बड़ी वजह माना जा रहा है। साइरस मिस्त्री के चेयरमैन रहते समूह कानूनी झगड़ों में उलझती जा रही थी। डोकोमो से कानूनी लड़ाई हारे। साथ ही समूह की चमकदार कंपनियों में से एक टीसीएस भी अमेरिका में एक बड़े कानूनी झगड़े में फंस गई। सिर्फ 4 साल के ही साइरस के कार्यकाल में टाटा समूह ढेर सारे बड़े कानूनी झगड़ों मं फंस गया। लेकिन, साइरस मिस्त्री के जाने की और भी दूसरी वजहें इसके साथ थीं। साइरस मिस्त्री ने टाटा समूह की उन कंपनियों को भी बेचना शुरू कर दिया था, जो रतन टाटा ने खुद कंपनी की साख बढ़ाने के लिए खरीदी थीं। लंदन में स्टील कारोबार को बेचने का साइरस मिस्त्री का फैसला टाटा संस के निदेशकों के गले नहीं उतरा। 2007 में कोरस खरीदकर रतन टाटा ने टाटा समूह के साथ भारत की इज्जत दुनिया में बढ़ाई थी। कोरस और जैगुआर-लैंड रोवर की खरीद ने टाटा समूह का नाम दुनिया में ऊंचा किया था। इसलिए यूनाइटेड किंगडम में स्टील कारोबार बेचने के फैसले को टाटा संस स्वीकार नहीं कर सका। मिस्त्री ने इसके अलावा समूह का परंपरागत खाद कारोबार भी बेच दिया।
साइरस मिस्त्री पूरी तरह से टाटा समूह को अपनी शैली में चलाना चाह रहे थे। ये बात भी सही है कि मिस्त्री ने टाटा समूह की कंपनियों के सीईओ को खुली छूट दी थी कि वो नए-नए तरीके खोजें और कंपनी को आगे बढ़ाएं। लेकिन, इस खुली छूट में जोर कंपनी का मुनाफा बढ़ाने को लेकर ज्यादा था। समूह के कंपनियों के सीईओ की हैसियत उसी आधार पर तय होने लगी थी। इस बात का साफ अंदाजा टाटा संस के निदेशक वी आर मेहता की बातों से लग जाता है। मेहता ने टीवी चैनल से बातचीत में कहाकि साइरस मिस्त्री के काम करने का तरीका सही नहीं थी। और कई बार बोर्ड ने मिस्त्री को चेताया भी। लेकिन, मिस्त्री समझने को तैयार नहीं थे। मेहता ने कहाकि, टाटा समूह की कंपनियों के कारोबार पर इसका असर पड़ रहा था। टाटा संसस का पूरा मुनाफा सिर्फ टीसीएस और जेएलआर पर ही निर्भर होता जा रहा है। दरअसल टाटा संस बोर्ड, समूह की दूसरी कंपनियों के साथ समन्वय की जिम्मा जिस ग्रुप एक्जिक्यूटिव काउंसिल पर था। उस काउंसिल के सदस्यों का बोर्ड और सीईओ के साथ बेहतर सम्बन्ध नहीं बन रहा था। टाटा समूह के फैसलों में अपनी पूरी छाप छोड़ने की गरज से साइरस मिस्त्री ने ग्रुप एक्जिक्यूटिव काउंसिल का गठन किया, जिसमें पूरी तरह से मिस्त्री के ही लोग थे। जीईसी सदस्यों- मधु कन्नन, निर्मल्य कुमार और एन एस राजन- की नियुक्ति को लेकर भी टाटा संस बोर्ड असहज था। माना जाता है कि जीईसी सदस्यों ने साइरस को इस बात के लिए तैयार किया कि ये सही समय है कि जब मिस्त्री अपने तरीकों से टाटा समूह को आगे बढ़ाने का फैसला ले सकते हैं। इन लोगों की ही सलाह पर मिस्त्री ने राजनीतिक गलियारों में अपनी आमदरफ्त बढ़ा दी। मिस्त्री ने अपनी कार्यशैली के बारे में खुलकर ताजा साक्षात्कार में बताया है। समूह का चेयरमैन बनने के बाद मिस्त्री का ये पहला साक्षात्कार है, जो समूह की पत्रिका में छपा है। इसमें मिस्त्री ने साफ कहा है कि वो कंपनी के पोर्टफोलियों में कटाई-छंटाई में जरा भी नहीं हिचकेंगे। साथ ही मिस्त्री ने कहा कि हर कंपनी को बढ़ने का अधिकार खुद हासिल करना होगा। टाटा रिव्यू पत्रिका में सितंबर महीने में छपे इस साक्षात्कार के बाद ही मिस्त्री का जाना तय हो गया था। ये जल्दी में लिया गया फैसला कतई नहीं है। टाटा समूह की साख और संस्कारों के साथ खिलवाड़ की कीमत मिस्त्री को चुकानी पड़ी है। अगर सिर्फ कंपनी की बढ़ती ताकत के लिहाज से देखें, तो साइरस मिस्त्री की अगुवाई में टाटा समूह ठीकठाक आगे बढ़ रहा था। चेयरमैन बनते समय साइरस मिस्त्री को 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कंपनी मिली थी। जिसे साइरस ने साढ़े 8 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की कंपनी बना दिया है। इस वैश्विक मंदी के दौर में किसी कंपनी का ये प्रदर्शन अच्छा ही कहा जाएगा। लेकिन, साइरस भूल गए कि टाटा साख के लिए जाना जाता है, संपत्ति के लिए नहीं।

कौन होगा टाटा समूह का नया चेयरमैन
टाटा समूह के नए चेयरमैन का चुनाव 4 महीने के भीतर होना है। इसके लिए बाकायदा एक पैनल बनाया गया है। अंतरिम चेयरमैन रतन टाटा खुद भी इस पैनल के सदस्य हैं। रतन टाटा के अलावा इस पैनल में रोनेन सेन, वेणु श्रीनिवासन और अमित चंद्रा शामिल हैं। ये सभी टाटा संस के बोर्ड में हैं। रतन टाटा ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भेजकर भी इस बदलाव की जानकारी दी है। और कर्मचारियों को भेजी चिट्ठी में कहा है कि उन्होंने समूह में स्थिरता बनाने के लिए अंतरिम चेयरमैन बनना स्वीकार किया है। अब टाटा समूह का नया चेयरमैन कौन होगा, इसका अनुमान हर कोई लगाने की कोशिश कर रहा है। गोयनका समूह के हर्ष गोयनका ने अपने ट्विटर खाते पर कुछ नामों में से ही नया चेयरमैन होने का अनुमान लगाया है। वो नाम हैं- एन चंद्रशेखरन, रवि वेंकटेशन, संजय कुमार झा, शांतनु नारायण और नंदन नीलेकणि। टीसीएस के सीईओ नटराजन चंद्रशेखरन मेरी नजर में सबसे प्रबल दावेदार हैं। टीसीएस टाटा समूह की सबसे महत्वपूर्ण कंपनियों में से एक हैं। रवि वेंकटेशन बैंक ऑफ बड़ौदा के नॉन एक्जिक्यूटिव चेयरमैन हैं। संजय कुमार झा ग्लोबल फाउंड्रीज के सीईओ हैं। शांतनु नारायण अभी एडोबी सिस्टम के सीईओ हैं और नंदन नीलेकणि इंफोसिस के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। लेकिन, जिस तरह से टाटा संस के बोर्ड में टीसीएस के सीईओ नटराजन चंद्रशेखरन और जेएलआर के सीईओ राल्फ स्पेथ को शामिल किया गया है, वो पक्का संकेत देता है। और इसीलिए टीसीएस के सीईओ नटराजन चंद्रशेखरन के टाटा समूह का नया चेयरमैन होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।

टाटा सन्स में किसका कितना मालिकाना हक
टाटा ट्रस्ट- 66%
शापूरजी पालूनजी मिस्त्री समूह- 18.5%
टाटा समूह की कंपनियां, टाटा समूह के बड़े अधिकारी - 15.5%

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