Saturday, May 28, 2022

गाँव की शादी में बुफे भोजन कराना अपराध घोषित होना चाहिए

हर्ष वर्धन त्रिपाठी


15 मई को देहरादून से वापसी के अगले ही दिन 16 मई को प्रयागराज जाना था। हमारे परिवार में बड़े भाई का निधन हो गया था, 17 मई को उनकी तेरहवीं थी और अगले दिन परिवार में एक पट्टीदारी के छोटे भाई का विवाह भी था। 18 मई को ही महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के प्रयागराज केंद्र पर चुनावी प्रबंध में मीडिया शोध की भूमिका पर मुख्य वक्ता के नाते रहना था। प्रयागराज की हमारी यात्रा अकसर ऐसी ही होती है। हर बार लगता है कि, कुछ छूट सा गया है, रह गया है और उसके लिए फिर आना है। हमारा पूरा गाँव चंदई का पुरवा कुल मिलाकर तीन परिवार हैं। एक शुक्ला जी, एक त्रिपाठी जी और एक पांडेय जी। हम लोगों का मूल कहा जाता है कि, गोरखपुर के सोहगौरा गाँव से है। गार्ड भैया (राजकुमार त्रिपाठी) लंबे समय से बीमार चल रहे थे और उनका निधन हो गया था। हमारे बाबा जी तीन भाई थे। सबसे बड़े माता प्रसाद त्रिपाठी, अध्यापक थे और इलाहाबाद में होली के दूसरे दिन खुल्दाबाद में उनकी चाकू मारकर हत्या कर दी गई थी। इसी वजह से हमारे यहाँ होली के दूसरे दिन यात्रा से बचते हैं। हालाँकि, मैंने होली के दूसरे दिन भी यात्रा खूब की है। दूसरे भाई श्रीनिवास त्रिपाठी थे जो, क़रीब दो दशकों तक सरपंच रहे। और, सबसे छोटे भाई थे हमारे बाबाजी, श्रीकांत त्रिपाठी, जिन्हें हम सब दादू बुलाते थे। दादू रेलवे सर्विस कमीशन में क्लर्क थे और हेड क्लर्क से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने अपनी कोशिश भर गांव-घर, परिवार के जाने कितने लोगों की नौकरी रेलवे में लगवाई थी। दादू शास्त्री उपाधि धारक थे और तीनों भाइयों की प्रतिष्ठा क्षेत्र में संस्कृत के प्रकांड विद्वान के तौर पर होती थी। दादू ने हम लोगों को हमेशा एक बात सिखाई कि, विद्यार्जन से महत्वपूर्ण और कुछ नहीं है। हमारी याद में हमारे परिवार में किसी को भी मैंने धन के पीछे भागते नहीं देखा। हालाँकि, बाद में यह स्थिति बदली और जैसे समाज में लक्ष्मी की प्रधानता बढ़ी है, हम सब पर उसका प्रभाव आया है, लेकिन अभी भी धन प्रधानता कम ही है। यही प्रभाव रहा होगा कि, बैंक प्रबंधक रहते हुए हमारे पिताजी स्वर्गीय श्री कृष्ण चंद्र त्रिपाठी जी ने कभी किसी को मिठाई का डिब्बा लेकर भी घर आने नहीं दिया। किसी की जरूरत है तो उसे बुलाकर कर्ज दिया, लेकिन कभी एक पैसे का कमीशन नहीं लिया। दादू 1937 में इलाहाबाद गए थे और यही वजह रही कि, हमारे पिताजी भी पढ़ने के लिए उनके पास गए थे। हमारे पिताजी गाँव से पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से परास्नातक की उपाधि प्राप्त की और सिर्फ उपाधि प्राप्त नहीं की। हमारे पिताजी स्वर्गीय श्री कृष्ण चंद्र त्रिपाठी जब परास्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, उस समय उनकी लिखी पुस्तक बिहारी विमर्श इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के स्नातक विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। हमेशा मुझे यह खटकता रहा कि, उनके रहते उनकी पुस्तक बिहारी विमर्श को हम नये सिरे से प्रकाशित नहीं करवा सके। और, उससे भी अधिक कि, हम भी पिछले डेढ़ दशक से अधिक समय से देश के प्रतिष्ठित हिन्दी समाचार पत्रों के संपादकीय पृष्ठ पर लगातार छपने के बावजूद पुस्तक/पुस्तकें लिख सके। पिताजी भले ही अब हमारे साथ सशरीर नहीं हैं, लेकिन लगता है कि, अब भी लगातार धकियाते रहते हैं।   

खैर, पिताजी का जिक्र आया तो यात्रा वृत्तांत का विषयांतर हो गया। हमारा इस बार प्रयागराज जाने का मूल गार्ड भैया की तेरहवीं में शामिल होना था। गार्ड भैया हमारे स्वर्गीय जगदीश प्रसाद त्रिपाठी दादा के पुत्र थे। जगदीश दादा के पिताजी श्रीनिवास त्रिपाठी और हमारे बाबा सगे भाई थे। वैसे तो हम तीन भाइयों में हमसे छोटे जयवर्धन प्रयागराज में ही हैं और सामाजिक दायित्व मुझसे ज्यादा बेहतर तरीक़े से निभा रहे हैं और उनका जन्मदिन 17 मई को ही पड़ता है। यह एक अनकही वजह थी, प्रयागराज जाने की, लेकिन पिताजी के रहने के बाद शायद यह भावना बलवती हुई है कि, घर-परिवार के सुख-दुख में शामिल रहना है और इसी बीच महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के प्रयागराज केंद्र से जुड़ गई डॉक्टर संतोष मिश्रा का फोन गया। संतोष ने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा से ही अपना शोध किया है और हम 2011 और 13 में वहाँ गए थे ब्लॉगरी के दौरान, तब मुलाक़ात हुई थी। संतोष ने कहाकि, हम लोग आपको बुलाना चाहते हैं। संतोष ने डॉ शिखा शुक्ला से भी बात कराई। हमने कहाकि, प्रयागराज आने का तो हम अवसर खोजते हैं और, संयोगवश 17, 18 मई में प्रयागराज रहेंगे, बस 18 मई का कार्यक्रम तय हो गया। विषय भी हमारी पसंद का था। मीडिया शोध की चुनावी प्रबंधन में भूमिका। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति डॉक्टर रजनीश शुक्ल का निर्देश आया कि, आपको रहना ही है। 18 मई को ही पट्टीदारी के एक छोटे भाई का विवाह था तो उसमें भी शामिल होना तय हो गया। इस तरह से एक पंथ कई काज पूरे करने वाली प्रयागराज यात्रा हुई।

17 मई की सुबह प्रयागराज एक्सप्रेस से प्रयागराज पहुँचे और अच्छी बात यह रही कि, हमेशा की तरह प्रयागराज एक्सप्रेस के शानदार डिब्बे और उसके भीतर की साफ-सफाई और माहौल यात्रा का तनाव खत्म कर देता है। उस पर नई दिल्ली स्टेशन से ही प्रयागराज के आँचल में चले जाने जैसा अहसास हम लोगों को अलग ही सुख देता है। और, यह तो प्रयागराज एक्सप्रेस है, हम तो दिल्ली-नोएडा या देश के किसी भी हिस्से में किसी गाड़ी की नम्बरप्लेट पर UP70 लिखा देखते हैं तो इतने भर से सुखद अहसास हो जाता है, लेकिन प्रयागराज के बदले समय के बाद पहली बार नई दिल्ली से ट्रेन पकड़ रहे थे। भला हो कि, लखनऊ मेल के लगे होने से पूछने पर पता चला कि, प्रयागराज अब 16 नम्बर प्लेटफ़ॉर्म की बजाय 14 नम्बर से चलती है। क्योंकि, पहले प्रयागराज एक्सप्रेस का समय 9:30 बजे का था, अब 10:10 हो गया है। अम्मा तेज नहीं चल सकती हैं, इसीलिए समय से बहुत पहले हम नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गए थे और, बिना किसी मारामारी के 14 नम्बर प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच गए। 

अम्मा की सीट किनारे की दो सीटों में से नीचे की सीट थी और हमारी चार सीटों में से एक ऊपर की। ट्रेन के डिब्बे में पहुँचे तो अम्मा की सीट पर दो बुजुर्ग महिलाएँ पहले से बैठी हुईं थीं। डिब्बे में हम पहले आए और जब हमने कहाकि, हमारी सीट है तो आग्रह भाव में उन्होंने कहा- आप ऊपर की सीट पर चले जाएँगे ? हमने बताया कि, हमारी दो सीटें हैं और हम तो ऊपर की ही सीट पर हैं, यहाँ अम्मा हैं, इसलिए ऊपर की सीट पर जाना असंभव है। कोई शोध छात्रा थी जो अपनी मौसी और नानी के साथ यात्रा में थी। हमने कहा- गाजियाबाद के बाद कोई कोई सीट टीटी दिला ही देंगे। संयोग अच्छा रहा कि, शोध छात्रा का कोई साथी ही बगल की नीचे की सीट पर आया और छात्रा की नानी जी को अधिक परेशानी नहीं हुई, लेकिन यह गम्भीर संकट हो चला है। ट्रेनों में अब वरिष्ठ नागरिकों और महिलाओं को नीचे की सीट मिल जाती है, लेकिन बाद में जब सीटें कम बचती हैं तो ऐसी मुश्किल होती है, उस पर कम उम्र के लोगों को भी नाना प्रकार की बीमारियों से ऊपर की सीट पर चढ़ना मुश्किल होता है। हमारे साथ ही की सीट पर भी एक कम उम्र के सज्जन ने असहाय भाव से कहाकि, उनका ऑपरेशन हुआ है, ऊपर की सीट पर नहीं जा सकते। स्वास्थ्य से बढ़कर कुछ नहीं, जीवन नीरस हो जाएगा, यह सबको समझना चाहिए। हालाँकि, आजकल लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक दिखते हैं। 

समय से पहले ही हम प्रयागराज एक्सप्रेस से प्रयागराज पहुँच गए। पिछले कुछ वर्षों में रेलवे की बुनियादी सुविधाओं में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ है। प्रयागराज एक्सप्रेस और इस रूट पर चलने वाली ज्यादातर अब करीब पौना घंटे तक कम समय में पहुँच रही हैं। इसकी वजह नये ट्रैकों का होना और ट्रैक का दोहरीकरण होना। रेलवे स्टेशनों पर साफ-सफाई और दूसरी सुविधाएँ भी पहले से बहुत बेहतर हुई हैं। प्रयागराज की ताजी, सोंधी हवा आनंद दे रही थी। स्टेशन से घर जाते लगा कि, अभी भी हमारा शहर प्रयागराज पेड़ों से गुछा हुआ है। उसकी सबसे बड़ी वजह यही कि, बहुमंजिली इमारतें अभी भी शहर में कम ही हैं और फ्लैट संस्कृति अभी भी लोगों को कम रुचती है। वरना हजार फ्लैट की बहुमंजिली इमारत बनाकर छोटे-छोटे बनावटी पौधे से हरियाली दिखाकर भला कहां हरियाली बचती है। नोएडा और गुड़गाँव जैसे शहरों में हम यह देख ही रहे हैं। स्टेशन से निकलकर हाईकोर्ट फ्लाईओवर से उतरकर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के बगल से हिन्दू हॉस्टल और हाथी पार्क के बीच से गुजरते चंद्रशेखर आजाद पार्क और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के बीच वाली सड़क से महर्षि भारद्वाज चौराहे तक लग रह था जैसे, सूरज की रोशनी मिले, लेकिन तपिश महसूस हो इसके लिए दोनों तरफ सड़क पर झुके हुए पेड़ व्यवस्थित तरीके से लगा दिए गए हों। बालसन दवा की दुकान के नाम से प्रचलित चौराहा अब नये स्वरूप में औपचारिक तौर पर महर्षि भारद्वाज चौराहा हो चुका है। कुम्भ के दौरान योगी आदित्यनाथ ने भव्य, विशाल महर्षि भारद्वाज की प्रतिमा यहाँ लगवाई, इससे बिना नाम बदले भी लोग अब भारद्वाज मूर्ति के पास मिलो, बताने लगे हैं। 

हमारे घर दारागंज जाने के लिए बक्शी बांध पर दो रेलवे ट्रैक पार करना पड़ता है। उस पर स्थानीय विधायक हर्ष वर्धन बाजपेयी और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के प्रयासों से तेजी से उड़ान पुल बन रहा है। अब रेलवे ट्रैक के ऊपर वाला गर्डर रखना बाकी रह गया है, लेकिन कुम्भ के समय बने नये रास्ते से एक रेलवे ट्रैक से बच जाते हैं। उम्मीद है कि, अगले कुछ महीने में यह उड़ान पुल शुरू हो जाएगा तो दोनों रेलवे ट्रैक और फल-सब्जी मंडी की बाधा भी पार हो जाया करेगी। पिताजी के रहने के बाद पहली बार घर पहुँचे थे। उस अहसास को बताने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं। दारागंज पहुँचे एक्को दिन गंगा नहाए, अइसा भला कइसे हो सकता था। दो ही दिन का समय था और 18 तो अति व्यस्त रहने वाली थी और 17 मई को छोटे भाई जयवर्धन त्रिपाठी का जन्मदिन भी था, इसलिए थोड़ा देर से ही सही, लेकिन 17 मई को ही गंगा स्नान करना तय हुआ। 



पहले दशाश्वमेध घाट गए, लेकिन जल में ठहराव दिखा तो, संगम गये और गये होते तो बड़े अनुभव से वंचित रह जाते। मंगलवार का दिन था, संगम तट पर मेला लगा हुआ था। लोग अपनी माँगो के साथ बड़े-बड़े लाल झंडे वाले निशान चढ़ाने रहे थे। ट्रैक्टर ट्रॉली पर लदा पूरा गाँव चला रहा था। किसी को 46-47 डिग्री तापमान का रंचमात्र अहसास होता नहीं दिख रहा था। ढोल-नगाड़े, डीजे, बैंड बाजा, ऊँट, घोड़ा, हाथीअद्भुत उत्सव चल रहा था। इसकी रिपोर्ट आप यहाँ देख सकते हैं संगम पर हजारों लोग बोल गंगा मइया की जय कहकर दनादन 11, 21, 51 … डुबकी लगाकर संतुष्टि भाव में थे। स्वयं स्नान कर रहे थे, लेकिन डुबकियों की बढ़ती संख्या में घर, परिवार, रिश्तेदार, मित्र, शुभचिंतक, गाँव, समाजसबका भला शामिल होता जा रहा था। गंगा नहाने एक भी गया था तो पूरा गाँव नहा रहा था। यह भावना सिर्फ हिन्दू धर्म के संस्कारों में मिलेगी और वह भी जन्म से मृत्यु तक। हिन्दू कितने प्रकार के होते हैं टाइप मूर्खता बतियाने वाले नेताओं को संगम की रेती पर एक माह माघ का कल्पवास करना चाहिए। कर पाएँ तो गाहे बगाहे कुछ डुबकी मारकर लौट आएँ। दुनिया ऊंटपटांगा टाइप व्यवहार में कुछ तो कमी आएगी ही। संगम स्नान करके लौटे अति आवश्यक जलेबी निपटान कर्म पूरा किया।

दोपहर में मित्र प्रभात पांडे मिलने के लिए घर आए। दिल्ली में कई खबरिया चैनलों में गेस्ट कोऑर्डिनेशन का कार्य करने के बाद पांडे जी को इलाहाबाद लौटने का अवसर मिला तो निकल लिए। आजकल उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र में मीडिया से समन्वय की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। शाम को हमें राजरूपपुर जाना था। लंबे समय के बाद शहर के उस हिस्से में जा रहे थे, लेकिन अच्छा लगा कि, हमें शहर के रास्ते भूले नहीं हैं। सब जस का तस याद है। नये उड़ान पुल, रास्तों के बनने के बाद भी हमारा अनुमान दुरुस्त है। घर-परिवार में थे तो देर होना स्वाभाविक था। अगले दिन सुबह-सुबह मित्र संजय मिश्रा गए। हमारी प्रयागराज की यात्रा में संजय से भेंट अवश्य होती है। भेंट लंबी नहीं हुई क्योंकि, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रयागराज केंद्र के निदेशक अखिलेश दुबे जी का फोन चुका था कि, कार आपके घर पहुँच गई है। थोड़ा पहले जाएँगे कुलपति महोदय डॉक्टर रजनीश शुक्ला ने कहाकि, थोड़ी चर्चा भी हो जाएगी। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रयागराज केंद्र का अब अपना परिसर झूँसी में बन गया है। अभी तक शहर में परिसर था, लेकिन किराए का था। जैसे किराएदार होना और मकानमालिक होना होता है, कुछ वैसा ही अहसास महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रयागराज केंद्र के लोगों को हो रहा होगा। जीबी पंत सामाजिक शोध संस्थान के अतिथि गृह में रजनीश जी रुके थे, वहाँ से हम लोग साथ ही विश्वविद्यालय गए। 



रोली, तिलक और पुष्प के साथ स्वागत हुआ। विश्वविद्यालय के अध्यापकों, छात्रों में कुछ नया करने, सीखने की प्रवृत्ति देखकर अच्छा लगा। महत्वपूर्ण विषय पर अति व्यवस्थित संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। चुनावी प्रबंधन में मीडिया शोध की भूमिका पर पहले सत्र में हम, डॉ रजनीश शुक्ला और IIMC के डीजी संजय द्विवेदी जी को रहे। 



छोटे भाई को हमने वहीं बुला लिया था क्योंकि, वहीं से सीधे गाँव जाना था। गाँव और गाँव की एक बारात में शामिल होना था तो बड़े भइया को भी रसूलाबाद से लेना था। उन्होंने नया घर बनवाया था, हमारा जाना भी अब तक नहीं हो पाया था। भइया सरस्वती प्रसाद त्रिपाठी नौकरी से सेवानिवृत्त होने वाले हैं, लेकिन उन्होंने नौकरी में रहते अथक परिश्रम से इतना कुछ किया है कि, सेवानिवृत्ति जैसा कुछ है नहीं। गाँव पर गैस एजेंसी और मंसूराबाद में आरएस ग्लोबल स्कूल उनके परिश्रम का ही परिणाम है। सेवानिवृत्ति के बाद विद्यालय को और बेहतर करने की उनकी योजना है। ग्रामीण परिवेश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाला विद्यालय हमारे पूरे परिवार के लिए गर्व का विषय है। गाँव-परिवार में ही एक और कार्यक्रम था, लेकिन वह कार्यक्रम गाँव से नहीं प्रयागराज शहर से बाहर शांतिपुरम से था, वहाँ होते हुए गाँव जाना था। लंबे समय बाद गाँव में लगभग सभी लोगों से मुलाकात हुई। कुछ से शांतिपुरम में, कुछ से गाँव में और बाकी लोगों से गाँव की बारात में। बहुत से बच्चे बड़े हो गए हैं और बाहर रहते हैं, उनको पहचानना कठिन हो रहा था। सबसे अच्छी बात कि, गांव-परिवार का हर बुजुर्ग देखकर अति प्रसन्न भाव में दिख रहा था। अब गाँवों की बारात और शहरों की बारात में बहुत अंतर नहीं रह गया है और यह अच्छा भी है। शशिकांत की भी बारात वैसी ही थी। उत्साह, उल्लास से भरपूर और लड़के की उम्र के दोस्त और घरवालों के नाचते गाते द्वारचार तक पहुँचते। हमें यह भी ध्यान में रखना था कि, समय से निकलना है। बारात लगते देरी होगी, इसीलिए प्रयागराज एक्सप्रेस की बजाय वापसी शिवगंगा एक्सप्रेस से कराई थी, जो परिवर्तित समय में रात 12:30 बजे प्रयागराज जंक्शन से चलती है। 10:30 बजे तक निकलना तय किया। सोचा कुछ खा लिया जाए, लेकिन यह अनुभव खराब रहा कि, गाँवों की बारात ही नहीं भोजन कराने का तरीका भी शहरों जैसा हो गया है। बुफे लगा हुआ था, लगभग सारे आइटम जो शहरों में होते हैं, लेकिन गाँव में बुफे में भोजन करना बेहद कठिन था। धूल-धक्कड़ और लोगों के खाने के तरीके में खाने की बहुत इच्छा रह गई। एक कचौड़ी आलू कोहड़ा की सब्जी के साथ खाई और सबसे भेंट करके वापसी कर ली। मुझे लगता है कि, गाँव में बुफे भोजन अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। गाँव-घर के लोगों से मिलना गजब ऊर्जा देने वाला रहा। 



लौटते समय छोटे भाई ने कहाकि, शिवम मिश्रा ने ढाबा खोला है, मिलते हुए चलेंगे। शिवम का श्री राधे फूड प्लाजा प्रयागराज के नवाबगंज में गुणवत्तापूर्ण भोजन के लिए बहुत अच्छा स्थान है। इस रास्ते पर इसका घोर अभाव था। हम मध्यरात्रि की तरफ बढ़ रहे थे और हमें अब स्टेशन पहुँचना था। हमारा सामान कार में ही था। भइया को उनके घर पर छोड़ा और स्टेशन पहुँच गए। शिवगंगा एक्सप्रेस समय से पहले गई थी, और सुबह भी नई दिल्ली समय से पहले गई। एक शिकायत रही कि, गाजियाबाद पर रुकती नहीं है। नई दिल्ली आकर और फिर नोएडा आने में करीब डेढ़ घंटे खराब हो जाते हैं। प्रयागराज छूते मध्यरात्रि में जो मेरे मन में भाव थे, उसे प्लेटफॉर्म के चित्र के साथ पोस्ट करके तब सोया। यही स्थाई भाव है। 



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