Friday, August 12, 2016

अब ब्राह्मणों के भरोसे नहीं हैं बहनजी

एक क्षत्राणी ने बहन मायावती को पूरी चुनावी रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है। हालांकि, अकेली स्वाति सिंह नहीं हैं, जिनकी वजह से मायावती को अपनी चुनावी रणनीति बदलनी पड़ी हो। लेकिन, सबसे बड़ी वजह स्वाति सिंह ही हैं। उत्तर प्रदेश में 2017 में फिर से सत्ता में आने का रास्ता ब्राह्मणों या कह लीजिए कि सवर्णों के जरिये खोज रही मायावती को स्वाति सिंह ने ऐसा झटका दिया है कि ब्राह्मणों की बहन जी अब मुसलमानों की माया मैडम ही बनने की कोशिश में लग गई हैं। दरअसल 2007 में मायावती का ब्राह्मण भाईचारा बनाओ समिति का फॉर्मूला अद्भुत तरीके से कामयाब रहा। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि उसके बाद 2012 और फिर 2014 में तो वो भाईचारा पूरी तरह से टूट गया। इसीलिए बसपा का ताजा समीकरण DM (दलित+मुसलमान) ही हो गया है। बहुजन समाज पार्टी अब पूरी तरह से दलित और मुसलमान के भरोसे ही 2017 की चुनावी वैतरणी पार करने की योजना बना रही है। इसकी ताजा झलक तब मिली, जब लखनऊ में बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने प्रेस कांफ्रेंस करके बताया कि कांग्रेस के तीन मुस्लिम विधायक अब हाथी की सवारी करेंगे। समाजवादी पार्टी का भी एक मुस्लिम विधायक अब हाथी की सवारी करेगा। पार्टी महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी अब बीएसपी के अकेले बड़े नेता कहे जा सकते हैं। हालांकि, बीएसपी में बहनजी को छोड़कर कोई नेता नहीं है। ये बात पार्टी के दूसरे महासचिव और ब्राह्मण चेहरा सतीश मिश्रा ने कह ही दिया है। सतीश मिश्रा ने ये बयान मीडिया में तब दिया था जब पार्टी के एक और महासचिव रहे स्वामी प्रसाद मोर्या ने टिकट बेचने का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी थी। सतीश मिश्रा के इतने निष्ठा भरे बयान के बाद भी मायावती की तरफ से कहीं भी किसी मंच पर फिलहाल मिश्रा को मान्यता नहीं मिली। यहां तक कि जब बीजेपी के उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाने में बेहद शर्मनाक तुलना कर दी और उसके बाद लखनऊ में बहुजन समाज के लोगों ने लखनऊ में बड़ा प्रदर्शन किया। उस प्रदर्शन की अगुवाई भी नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही कर रहे थे। सतीश मिश्रा की भूमिका खास नहीं रही।

सतीश मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को बहनजी कैसे आगे रखती हैं। दरअसल यही साफ कर देता है कि अब बहुजन समाज पार्टी की ताजा चुनावी रणनीति क्या है। पूर्वांचल में एक सीट से बीएसपी का टिकट हासिल कर चुके सवर्ण प्रत्याशी ने बताया कि, मुश्किल तो बढ़ गई है। हमने बीएसपी का टिकट इसीलिए लिया कि सवर्ण जातियों के साथ दलितों का वोट मिलेगा और जीत पक्की हो जाएगी। लेकिन, स्वाति सिंह और उनकी बेटी के खिलाफ लखनऊ में हुई बीएसपी की रैली में अपशब्दों के प्रयोग ने सिर्फ ठाकुरों का ही नहीं पूरे सवर्ण समाज का मन बीएसपी के लिए खट्टा कर दिया है। इस कदर कि प्रदेश में ज्यादातर सवर्ण प्रत्याशी बीएसपी के टिकट पर सवर्णों को वोट दूर जाता हुआ देख रहे हैं। अचानक लड़ाई भाजपा-सपा में होती दिखने लगी है। हालांकि, अभी भी बीएसपी के टिकट पर 50 से ज्यादा ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव लड़ते दिख रहे हैं। लेकिन, बदली परिस्थितियों में बीएसपी दलित और मुसलमानों को ज्यादा से ज्यादा देगी, ऐसी खबरें हैं। नवाब काजिम अली खान, मुस्लिम खान, दिल नवाज खान और नवाजिश आलम खान भले ही कांग्रेस और सपा से टूटकर आए विधायक हैं। लेकिन, दरअसल ये बहनजी की ताजा चुनावी रणनीति के चेहरे हैं। इसका सीधा सा गणित है। अभी तक ब्राह्मण और पूरे सवर्ण वोटों के लिए मायावती को भारतीय जनता पार्टी को ही ध्यान में रखकर रणनीति बनानी थी। जो 2007 में 89 ब्राह्मणों को टिकट देकर मायावती ने साध लिया था। लेकिन, 2012 में 74 ब्राह्मणों और 2014 के लोकसभा चुनाव में 21 ब्राह्मणों को टिकट देने के बाद भी मायावती को अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। इसीलिए 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही बीएसपी ने ये तय कर लिया था कि दलित-मुसलमान के गठजोड़ को ही पक्का करना है। इस गठजोड़ को स्वाभाविक तौर पर अभी देश भर में चल रहे गाय-दलित बहस से भी समर्थन मिल रहा है। और देश में एक दलित-मुस्लिम वोटबैंक बनाने की कोशिश तेजी से चल रही हैं। बीएसपी इसी उभार को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेना चाह रही है। इसीलिए दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटी के खिलाफ शर्मनाक टिप्पणी करने के आरोपी नसीमुद्दीन पर कोई कार्रवाई करने के बजाए मायावती सिद्दीकी को और प्रमुखता से आगे कर रही हैं।


मायावती के चुनावी रणनीति बदलने के पीछे एक बड़ी वजह ये भी है कि कांग्रेस पूरी तरह से ब्राह्मणों, सवर्णों को साधने में लगी है। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस ने एक लॉलीपॉप तो फेंक ही दिया है। खबर ये भी है कि कांग्रेस दो दशक पहले छात्र राजनीति में आगे रहे सवर्ण नेताओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने का मन बना रही है। बीएसपी को ये अच्छे से पता है कि ऐसे में ब्राह्मण और सवर्णों की पसंद के विकल्प के तौर पर भाजपा के बाद कांग्रेस भी सामने है। दूसरा मुसलमान और दलित का गठजोड़ अगर बेहतर हो तो बीएसपी के लिए तारनहार हो सकता है। उत्तर प्रदेश में दलितों का मत 21 प्रतिशत और मुसलमानों का करीब 18 प्रतिशत है। 14 प्रतिशत ब्राह्मण प्रदेश की करीब डेढ़ सौ सीटों पर खेल बदल सकता है। लेकिन, ये भी सच है कि 18 प्रतिशत मुसलमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलित के साथ मिलकर मायावती को बड़ी बढ़त दिला सकता है। कुल मिलाकर स्वाति सिंह के पक्ष में भावनात्मक रूप से सवर्णों का जुड़ना, कांग्रेस का भी सवर्ण वोटों के लिए हर कोशिश करना और दलितों पर हो रहे हमलों के बाद दलित-मुसलमान गठजोड़ की नई राष्ट्रीय परिकल्पना ने मायावती को विधानसभा चुनाव की रणनीति सर्वजन से मुस्लिम और बहुजन करने का बड़ा स्वाभाविक आधार दे दिया है। 
(ये लेख QuintHindi पर छपा है)

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