Thursday, April 12, 2012

नइकी दुलहिनिया!

नइकी, पहिले दिन ही आई तो, उसे पता था कि वो, सिर्फ दुबेजी का वंश चलाने के लिए लाई गई है। उस पर हर समय बड़कई के गुस्साने का भी डर था। देखने में बड़कई भी ठीक थी। लेकिन, बड़कई बड़ी थी तो, उमर का भी असर और सबसे बड़ी बात कि बड़कई बच्चा नहीं दे पा रही थी। नइकई, एकदम नई थी। दुबेजी से उमर में लगभग आधी। नई थी, एकदम्मै नई। दुबेजी की जमींदारी थी। पैतृक जमीन इतनी थी कि उसमें काम करने वाली परजा ही दुबेजी के बड़के कच्चे घर और पक्के डाक बंगले के चारो तरफ बस गई थी। लेकिन, चिंता बस वही थी कि आखिर तीन पीढ़ी से एक-एक बच्चे के जरिए चल रहा दुबेजी का वंश और उनकी जमींदारी का क्या होगा। सबसे ज्यादा चिंतित बूढ़ी फुइया थीं। खैर, इसी सब चिंता में नइकई आई। घोर दहेजी समाज में भी नइकी अपने बाबू के लिए गजब खुशकिस्मती निकली कि बिना दहेज शादी हुई। अउर त अउर दुबेजी का हाथ बंटाने के लिए नइकी का भाई भी साथ ही आया। यही दहेज देना पड़ा नइकी के बाबूजी को। नइकी के बाबूजी के लिए इससे बढ़िया क्या हो सकता था कि बिना खर्च किए जमींदार के यहां बेटी जा रही थी और साथ में बेटा भी जमींदार भले न हो लेकिन, जमींदारी संभालने के लिए तो, जा ही रहा था।

नइकी समझदार थी। नइकी काम सबसे संभालकर कर रही थी। बड़की की सेवा। और, दुबेजी के वंश में बढ़ोतरी। बड़की का हाथ-गोड़ मींजने से लेकर, सारी सेवा नइकी कर रही थी। और, इसके बदले उसे बड़की से अभयदान मिला था। क्योंकि, हिंदू संस्कार और कानून त बड़की, नइकी की इजाजत नहीं देते ना। इसीलिए बच्चा न पैदा कर पाने के बाद भी बड़की की इज्जत बनी हुई थी। बड़की भी बड़ी बन गई। अपनी नियति को ही मजबूती बना ली। दुबेजी की सेवा नइकी करेगी और, बाहर का सारा जिम्मा बड़की संभालेगी। वैसे, भी बड़की को पता था कि दुबेजी के पास जाने के लिए उसके पास कोई बहाना भी तो नहीं था। दुबेजी की नजदीकी के लिए ही तो, नइकी आई थी। नजदीकी रंग लाई औ तीन पीढ़ी से एक-एक बच्चे के जरिए चलने वाला दुबेजी का वंश तीन गुना बढ़ गया। अब बड़की ज्यादातर बाहर का ही काम संभालती है। नइकी अभी भी घर के भीतर ही ज्यादा रहती है। बड़की की सेवा भी वैसे ही करती है। हां, अब नइकी के बच्चे बड़े हो गए हैं। बड़की के साथ घर के बाहर के काम में बंटाते हैं। नइकी-बड़की दोनों एक दूसरे की पूरक हो गईं हैं। और, दुबेजी के लिए इससे बढ़िया क्या हो सकता है।

Wednesday, April 11, 2012

सरसों का तेल कैसे बनता है ?

गांव में हमारे दरवाजे पर पीटी जा रही सरसों
गांव खत्म होते जा रहे हैं। हैं भी तो, वो शहर होते जा रहे हैं। पहले गर्मी की छुट्टियों में हर बच्चा अपने गांव जाता था। और, करीब 2 महीने की शानदार छुट्टियां मनाने में पूरा गांव समझ लेता था। गांव के साथ गांव की बातें भी समझ लेता था। खेत भी समझ लेता था। खेती भी समझ लेता था। गाय-भैंस गोबर भी समझ लेता था। लेकिन, अब के बच्चों की न तो उस तरह से गर्मी की छुट्टियां होती हैं। न वो, गांव जाना चाहते हैं। न गांव समझना चाहते हैं। कईयों के तो, गांव ही नहीं रह गए। फिर ऐसे में शहरों के कॉन्वेन्ट स्कूलों में जब कोई संस्था सर्वे करती है तो, बच्चे दूध मदर डेयरी और अमूल की पैदाइश बताते हैं।

इस बार गांव गया तो, हमारी सरसों पीटी जा रही थी। लकड़ी के पटरा चार लकड़ियों पर लगा था। और, पूरी जमीन गोबर से अच्छे से लीप दी गई थी। और, दोनों तरफ से दो लड़कियां लगातार सरसों पीट रही थीं। इस प्रक्रिया में सरसों के दाने गोबर से लीपी जमीन पर गिर रहे थे। बाद में सरसों के खाली पेड़ किनारे करके सरसों के दाने बटोर लिए जाते हैं और इसी सरसों के दाने से सरसों का तेल तैयार। वैसे तो, ये बड़ी सामान्य घटना/ प्रक्रिया है। लेकिन, मैं यही सोच रहा था कि जब बच्चे गर्मी की छुट्टियों में गांव ही नहीं जाएंगे तो, गांव क्या समझेंगे।

Tuesday, April 10, 2012

खाबदान!


बवाली के मेहरारू क तेरही भोज

आखिरकार नंबरदार के घर से केहू नाहीं आए। जबकि, लागत रहा कि एकाध घर छोड़के एह बार सब बवाली के दुआरे खाए अइहैं। मैनेजर साहब से बाबूजी मिलेन त कहेन कि ई जरूरी है कि पूरा गांव एक साथे रहै। कउनौ मतलब थोड़ो न बा। अरे बाबूजी मतलब, नंबरदार का बेटवा। बाबूजी भोपाल नौकरी केहेन। जंगल विभाग म बाबू रहेन। इहीसे उनके घरे वाले सब बाबूजी कहै लागेन। रिटायरमेंट के बाद बाबूजी लउट के अपने गांव के दूसरे लोगन की तरह इलाहाबाद म घर बनवाएन औ हुअंई रहई लागेन। सारी जिंदगी गांव से बाहर रहइ के वजह से बाबूजी क लागत रहा कि का फायदा ई एक दूसरे से झगड़ा करे से। एक के घर मं कुछ सुख-दुख परै औ आधा गांव मुंह फुलाए बइठा रहै। तबै बाबूजी मैनेजर साहब से कहेन वइसेओ गांव में कइउ जने के घरे में रोज ढंग क खाए क जुगाड़ त रहत नाहीं औ उही मं कुछ परे-परोजने खाबदान का झंझट। लेकिन, नंबरदार के घरे से केहू नाहीं आए। जमीन-दुआर क लइके बवाली के घरे से मुकदमा जउन चलत बा। वइसे अब न बवाली अहैं, न नंबरदार। औ इ तो, बवाली के मेहरारू के मरै के तेरही क नेउता रहा।
खैर, ई गांव है। प्रतापगढ़ का ठेठ पारंपरिक पंडितों का गांव। ठसका ई कि हम सोहगौरा त्रिपाठी से श्रेष्ठ कउनौ बाभन होबै नाहीं करतेन। इही से बिटिया के बियाहे से लैके, हर काम मं मेल क श्रेष्ठ बाभन हेरै मं जिउ निकर जाथ। लेकिन, बभनई क ठसका तो, बराबर बना बा। बल्कि, सही मं तो, बढ़तौ जात बा। इही से पूरा गांव कभौ एक नाहीं भ। हमेशा गांव मं दुई पार्टी रही। ई अलग बात है कि राजनीतिक पार्टियों की तरह गांव की पार्टी के नेता भी अदला-बदली का खेल खेलते रहते थे। लेकिन, बहुत दिन से गांव में चल रहा दो पार्टी का झंझट इस बार टूटने की उम्मीद कुछ दिख रही थी। मास्टर साहब के दुआरे प हमेशा की तरह पार्टी मजबूत करने का कार्यक्रम जारी था। पता चला कि जेई क मेहरारू कहिन चाहे जउ होई जाए। मास्टर और मैनेजर के साथे कभौ न जाब। औ जेई क मेहरारू ई सब करत रहिन अपने कक्कू के कहे से। वइसे जेई क मेहरारू कक्कू का पानी गांव के झगड़ा म कइउ दाईं मजे से उतार चुकी रहिन। लेकिन, खाबदान के मामले में कक्कू की काम भर की सुन ली जाती थी। काहेसे के कक्कू इंटर कॉलेज मं लेक्चरर रहेन औ थाना भरे क पत्रकार। एसे तीन घरे क ठेका औनहीं क लगे रहा। केसे खाबदान करैक बा। केसे खाबदान तौरै क बा, ई सबकुछ। वइसे अब कक्कू रिटायर होइ ग अहैं औ कक्कू क थाने वाली पत्रकारिता भी कमजोर हुई। या इ कहें कि कक्कू की थाने वाली पत्रकारिता इसलिए भी कमजोर हो गई कि अब गांव में कई वकील हो गए। जेई के मेहरारू बीजेपी क गांव का नेता होई गईन। लेकिन, एह बार कक्कू रहबौ नाहीं केहेन औ कक्कू क असर घटि ग रहा। तो, बस जेई औ उनके मेहरारू कक्कू के कहे पे बवाली के मेहरारू के तेरही मं नाहीं गए औ नंबरदार के घरे से तो जाहिर है कि जब मुकदमा चलत बा तो काहे केहू आई।
हां, तबौ बवाली के मेहरारू क आत्मा गजब ऊपर कहूं अगर होई तो, हंसत होई कि सारी जिंदगी तो, पूरा गांव उनके दुआरे जाए से बचत रहा औ खाबदान जोड़ै खातिर उनकै तेरहिन गांव भरे क मिली। नंबरदार क पूरा घर औ कक्कू के साथे जेई औ उनकै मेहरारू बस एनहीं क छोड़के पूरा गांव बवाली के मेहरारू क तेरही क भोज खाएस। हियां तक कि जेई क भाए-बाप औ दादा के घरे से सब तेरही खाएन। दरअसल, गांव भरेक बवाली के मेहरारू के तेरही से नीक मौका मिलबौ न करत। बवाली के दुई बिटिया अहैं। उहौ दुइनौ बिटिया सोहगौरा त्रिपाठी के इज्जत क धोती पहराइ देहे रहिन। इही से दुइनौ बिटिया क गांव मं केहू पसंद नाहीं करत रहा। बड़की बिटिया नर्स रही औ एक बस कंडक्टर से बियाह कइ लेहेस। नाम से साधु। लेकिन, बवाली के बिटिया के पहिले 2-3 बियाह केहे रहा। औ छोटकी क खुदै बवाली दुआह केहे रहेन। छोटकी के मंसेधू का नाम विष्णु। वइसे विष्णु क पहली मेहरारू मरि ग रही। औ बवाली क छोटकी बिटियी ननियउरे मं इतना बवाल मचाए रही कि जल्दी से बियाह करब जरूरी रहा औ विष्णु मिली गएन।
लेकिन, बवाली औ उनके मेहरारू क दुर्दशा देखा कि दुइनौ बिटिया जीतौ हैरान किहिन औ मरौ प दुइनौ बिटियन क मंसेधू नहिंयै आएन। हां, बवाली औ उनके मेहरारू क आत्मा क इतनै खुशी भ होई कि पूरा गांव, पड़ानन सहित उनके दुआरे आइके खाएस। पड़ानन श्रेष्ठ सोहगौरा त्रिपाठियों के गांव में पांडे जी लोगों का कुछ परिवार था। बवाली सारी जिंदगी भांग क गोला खाए के मस्त रहेन औ गांव मं बवाली केहूक याद आवत रहेन तो, सिर्फ भांग क गोला उनकै लाठी औ पलरी भ कचौरी खाए तक। या तो, फिर होली प फगुआ। होरी खेलैं रघुबीरा ...।  लेकिन, उही बवाली के मेहरारू के मरे प गांव लगभग एक होइ ग। अब पूरा गांव एक हौइ जाई तो, भला गांव कइसे रहि जाई। औ एक इहू से होइ लेहेन कि भाई कउनौ सोहगौरा के दुआरे थोड़ो न सब सोहगौरा इकट्ठियानेन। इकट्ठियानेन भले बवाली सोहगौरा के दुआरे लेकिन, नेउता त खियावत रहिन बवाली क दुइनौ बिटिया। उहै दुइनौ बिटियन जउन अपने समय मं सोहगौरन क धोती समाज में फहराइ देहे रहिए। होइ ग आधा-अधूरा खाबदान होइ ग। पूरा खाबदान एह गांव मं शायदै होए। इहै गांव है आजकल। अब बतावा काहे केहू गांव म रहे। जब अपने घर-परिवार के दुआरे खाए म एतना झंझट वा तो।

Thursday, April 05, 2012

उम्मीद तो, जगी है लेकिन,


दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर अन्ना

5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास की कुछ उसी तरह की अहम तारीख है जैसे कि 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950। आजादी या गणतंत्र की तारीख से 5 अप्रैल 2011 की तारीख थोड़ा अलग मायने की है, अलग महत्व की है। आजादी और गणतंत्र की तारीखें ऐसी तारीखें हैं जिस दिन देश को अपनी आजादी और अपने गणतंत्र के होने का अहसास मिला। और, वो अहसास हमारा गर्व बना। क्योंकि, 15 अगस्त 1947 के बाद कम से कम सीधे तौर पर किसी विदेशी का हम पर शासन नहीं रहा और 26 जनवरी 1950 के बाद हमने खुद के बनाए संविधान के लिहाज से एक देश के तौर पर खुद को चलाना सीखा। 5 अप्रैल 2011 का भी महत्व अगर देखा जाए तो, इन दोनों ही तारीखों से कुछ कम नहीं है। लेकिन, 5 अप्रैल 2011 की तारीख अलग इस मायने में है कि इस दिन जो, उम्मीद की किरण दिखी थी वो, अब तक अहसास में नहीं बदल पाई है।
रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की उम्मीद में जमे लोग
5 अप्रैल 2011 को, जो उम्मीद की किरण थी वो, थी भ्रष्टाचार मुक्त भारत की। 5 अप्रैल 2011 को जंतर-मंतर पर किशन बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठे तो, अंदाजा ही नहीं था कि इस नए गांधी ने भारत की बेहद कमजोर नस पर इतने सलीके से हाथ धर दिया है। नब्ज पकड़ में आई तो, भ्रष्टाचार की बीमारी से पीड़ित हर भारतीय प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर इस डॉक्टर के दवा के परचे की लाइन में खड़ा हो गया। लेकिन, भ्रष्टाचार की बीमारी दूर करने का दावा करने वाले डॉक्टर अन्ना हजारे की मुश्किल ये थी कि खुद के लिए भ्रष्टाचार की बीमारी का पक्का इलाज चाहने वाले हिंदुस्तानी दूसरे हिंदुस्तानियों के लिए खुद ही भ्रष्टाचार की बीमारी बढ़ाने का हर संभव प्रयास कर रहा था। देश में भ्रष्टाचार की बीमारी से लड़ते दिख रहे अकेले इस सीनियर सर्जन के साथ कुछ जूनियर सर्जनों की टीम भी बीमार भ्रष्ट भारतीयों के लिए उम्मीद की किरण दिखी। देश जागा। भ्रष्टाचार की बीमारी में बेसुधी की नींद ही कुछ ऐसी गहरी आई थी।
विकी पीडिया पर अन्ना हजारे का पृष्ठ बताता है कि वो, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़ने वाले महारथी हैं। पद्मश्री और पद्म भूषण जैसे प्रतिष्ठित भारतीय नागरिक सम्मान पा चुके इस शख्स की ढेरों उपलब्धियां भी विकीपीडिया के इस पेज पर मिलेंगी। लेकिन, 5 अप्रैल 2012 को सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि क्या 5 अप्रैल 2011 भारतीय इतिहास में 15 अगस्त 1947 या फिर 26 जनवरी 1950 जैसी निर्णायक तारीख बन पाएगी। कुछ अतिभ्रष्टाचारियों को छोड़कर, पूरे देश की तरह हम भी उम्मीद से हैं। क्योंकि, थोड़े बहुत भ्रष्टाचारी तो हम सब हैं। लेकिन, न्यूनतम भ्रष्टाचारी होने के कारण हम जैसे लोग रिपोर्टिंग करते एक्टिविस्ट की भूमिका में आ गए थे। ये अन्ना के आंदोलन की ताकत थी।
इलाहाबाद विकास प्राधिकरण में रजिस्ट्री के लिए मारामारी
लेकिन, बीते वित्तीय वर्ष के आखिरी दिन इत्तेफाक से हम इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के दफ्तर में काफी समय रहे। और, जमीन की रजिस्ट्री की पीड़ादायी प्रक्रिया और अन्ना को चुनौती देते बाबुओं की फौज से जूझते आम आदमी को देखकर मन में फिर सवाल खड़ा हुआ कि 5 अप्रैल 2011 आखिर निर्णायक तारीख कैसे बन पाएगी। यही वो, आम आदमी था जो, जंतर-मंतर, रामलीला मैदान से लेकर अपने शहर के नुक्कड़, चौराहे तक अन्ना के साथ गला फाड़कर, मैं अन्ना हूं की टोपी लगाकर खड़ा था। वही आम आदमी अपनी खरीदी जमीन की रजिस्ट्री के लिए बाबुओं के सामने रिरिया रहा था। बाबुओं की कृपादृष्टि भर से वो, प्रसन्ना हो रहा था। आजादी के 65 साल बाद भी रजिस्ट्री का वही घटिया तरीका। वही स्टैंप पेपर पर अंगूठे के निशान, हस्ताक्षर से लेकर एक बेहद घटिया पेपर की रसीद से रजिस्ट्री हो जाने की संतुष्टि।
प्राधिकरण में रिश्वत के खिलाफ लगा सूचनापट्ट
31 मार्च 2011 को ADA यानी इलाहाबाद विकास प्राधिकरण की लिफ्ट तेजी से का सातवें, आठवें तल पर ही जा रही थी। सातवें तल पर रजिस्ट्री के डीलिंग क्लर्क के पावन दर्शन होने थे। और, आठवें तल पर एक 25-30 लोगों की क्षमता वाले कमरे में एक साथ 100-150 लोग कुछ छूट की उम्मीद में आखिरी रजिस्ट्री कराने के लिए धंसे पड़े थे। हालांकि, सातवें तल पर डीलिंग क्लर्क के कक्ष के बाहर ही एक बड़ा बोर्ड लगा था जो, साफ तौर पर इलाहाबाद विकास प्राधिकरण के अन्नामय होने की बात सार्वजनिक तौर पर कह रहा था। उस सार्वजनिक सूचना पट्ट पर साफ लिखा था कि प्राधिकरण के किसी भी कार्य के लिए कोई भी अधिकारी, कर्मचारी सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्ध है। लेकिन, इसी बोर्ड पर अन्ना के साथ खड़े अन्ना के घोर विरोधी आम आदमी, कर्मचारी में से किसी ने सुविधा शुल्क/ रिश्वत न लेने के लिए वचनबद्धता को लेने की वचनबद्धता में बदलने की कोशिश की थी। वैसे, कोई इस सूचना पट्ट पर नजर भी नहीं डालता क्योंकि, इससे तो, बनी बात बिगड़ जाएगी। और, अंदर पहुंचते ही प्राधिकरण के अधिकारियों, कर्मचारियों की ईमानदारी का नमूना मिलना शुरू हो ही जाता है।
चढ़ावा डीलिंग क्लर्क से शुरू होकर आखिरी रसीद काटने वाले चपरासी बाबू तक चढ़ रहा था। कोई सरकारी खजाने में जमा होने वाली जायज राशि भर देता तो, रजिस्ट्री के लिए बैठी बाबुओं की फौज में से किसी की करकराती, डराती आवाज सुनाई दे जाती। खर्चवा देबा कि अइसेन रजिस्ट्री होइ जाई। लाखन क जमीन लेब्या औ दुई चार सौ देए म आफत होइ जाथ। किसी तरह जिसकी रजिस्ट्री हो जा रही थी। वो, जैसे अपने सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के दर्शन जैसा अहसास पा रहा था। ऐसे ही अहसास अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अहसास की सबसे बड़ी बाधा हैं। 5 अप्रैल 2011 ने एक उम्मीद तो, जगाई है लेकिन, ये उम्मीद भ्रष्टाचार मुक्त भारत के संपूर्ण या फिर बहुमत के अहसास में कब बदलेगी ये बता पाना तो, शायद ही किसी के वश का होगा।

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...