Thursday, September 05, 2024

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी 



9वीं से 12वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमीडिएट कॉलेज, इलाहाबाद की सबसे सुंदर इमारत वाले विद्यालयों में था, लेकिन पढ़ाई के मामले में जरा कम प्रतिष्ठित था। कॉलेज के शानदार मैदान पर यूपी रणजी क्रिकेट टीम के कई बड़े खिलाड़ी खेलते थे, लेकिन उनके खेल से अधिक हमारे कॉलेज के मैदान की चर्चा बगल के कुलभास्कर डिग्री कॉलेज के छात्रों से होने वाली लड़ाई में बमबाजी के लिए रहती थी। केपी कॉलेज की इमारत भव्य थी। उस समय भी दो कक्षाएं पीएलटी और सीएलटी, आज के आधुनिक क्लासरूम की तरह सीढ़ियों पर लगी कुर्सी मेज वाली थी। केपी कॉलेज के फिजिक्स के अध्यापक एमएम सरन की इलाहाबाद में गजब प्रतिष्ठा हुआ करती थी। भौतिक विज्ञान के शहर के सबसे अच्छे अध्यापकों में उनका भी नाम था, लेकिन इसके साथ ही सरन सर ग्यारहवीं और बारहवीं के बच्चों को भी बल भर हौंक देते थे, यह प्रतिष्ठा भी उनके सीने पर लगे बैज की तरह सजी रहती थी। बदमाश लड़के भी सरन सर से डरते थे। सरन सर की क्लास में पीएलटी (फिजिक्स लेक्चर थिएटर) में हमारी बारहवीं की कक्षा चल रही थी। मैं सबसे पहली कतार में बैठा था। कहीं मेरा ध्यान इधर-उधर रहा होगा। शायद बगल बैठे छात्र से बात कर रहा था। अचानक सरन सर ने चॉक मारी और कड़कती आवाज में कहा- खड़े हो जाओ। क्या पढ़ा रहा था मैं? मैं एकदम से सन्न। मैंने कहा- ध्यान नहीं है सर। उन्होंने कहा- बेंच पर खड़े हो जाओ, मैं बेंच पर नहीं खड़ा हुआ, सिर झुकाए खड़ा रहा। गुस्से में सरन सर ने पूछा- क्या नाम है तुम्हारा, उसी से जुड़ा दूसरा सवाल था, तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं? मैंने अपना नाम बताया और कहा कि, पिताजी बैंक में मैनेजर हैं। सरन सर बेहद गुस्से में थे। उन्होंने कहा- तुम चपरासी भी नहीं बनोगे। सामान्य तौर पर सरन सर के सामने बोलने की भी हिम्मत मुश्किल से होती थी, लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि, मैंने भी पूरे गुस्से से कहा कि, सर, चपरासी तो नहीं ही बनूंगा। सरन सर का गुस्सा और बढ़ गया, उन्होंने मुझे क्लास से बाहर निकाल दिया। मैं कॉलेज से घर आया। आठवीं के बाद हम लोग अल्लापुर की कॉलोनी वाले घर से दारागंज के अपने घर में चुके थे। पता नहीं कैसे, लेकिन सरन सर की उस बात से मेरे अंदर भरा गुस्सा भरा ही रहा। देर शाम शायद रात आठ बजे पिताजी यूनियनबाजी करके घर लौटे। उनकी यजदी मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई देती तो हम बच्चों में से कोई दौड़कर गेट खोलता था। पहले घर से बहुत ऊंचाई पर घर बनता था, जिससे सड़क बनते बरसों के बाद भी सड़क घर से ऊपर हो पाए। उस दिन मैंने ही दौड़कर गेट खोला और गेट खोलकर सामने से हटने के बजाय कहा कि, आज सरन सर ने कहा कि, तुम चपरासी भी नहीं बन पाओगे। पूरी बात सुनने के बाद फिर से उन्होंने मोटरसाइकिल निकाली और कहा- चलो सरन सर के घर। मुझे भी सरन सर का घर पता नहीं था। बस इतना पता था कि, शायद सोहबतियाबाग में कहीं रहते हैं। खैर, सरन सर की प्रतिष्ठा बड़ी थी। थोड़ी ही देर में हम लोग खोजते हुए सरन सर के घर पहुंच गए। पिताजी को देखकर सरन सर हैरान रह गए थे। शायद इसकी उन्हें कल्पना भी नहीं रही होगी। सरन सर तो रोज जाने कितने छात्रों को डंडा बजाते थे, लेकिन कहां कोई छात्र अपने पिताजी को लेकर उनके पास आता था क्योंकि, जिस छात्र पर डंडा बजता था, वो अपने पिता को लेकर आता तो शायद पिता भी उसकी गुंडई/बदमाशी के लिए डंडा ही बजाते। पिताजी ने जो कहा, मुझे शब्दश: याद है। उन्होंने आप इसके अध्यापक हैं, डांट सकते हैं, मार सकते हैं, लेकिन ऐसे कैसे बोल सकते हैं कि, तुम चपरासी भी नहीं बनोगे। चपरासी बनने के लिए आपसे पढ़ने के लिए भेज रहे हैं। पिताजी की आक्रामकता देखकर सब पर रुआब बनाने वाले सरन सर बैकफुट पर चले गए थे। उन्होंने माना कि, ऐसा नहीं कहना चाहिए था। हम लोग वापस घर गए। पिताजी ने बस इतना ही कहा- फिजिक्स में अच्छे नंबर लाना। बड़ा कठिन हो गया था। यूपी बोर्ड में अच्छा नंबर मतलब फर्स्ट डिवीजन और अभिभावकों का अघोषित गुड सेकेंड था। गुड सेकेंड अर्थात् 55-60 प्रतिशत के बीच का अंक। बारहवीं की परीक्षा के परिणाम आए। फर्स्ट डिवीजन दूर-दूर तक नहीं और गुड सेकेंड भी नहीं आया। सेकेंड डिवीजन आया, लेकिन मैं अंकपत्र लेकर सरन सर को खोजते उनके पास गया था क्योंकि, मेरे पास उसकी पक्की वाली वजह थी। मेरे भौतिक विज्ञान में 74 अंक आए थे। एक अंक और हो जाता तो डिस्टिंकशन मिल जाता अर्थात् भौतिक विज्ञान में विशिष्ट अंक, लेकिन 74 प्रतिशत सरन सर के सामने जाने के लिए पर्याप्त थे। कॉलेज के गिने-चुने बच्चों को ही इतने अंक मिले थे। सरन सर ने पीठ थपथपाई और कहा कि, दूसरे विषयों में ऐसे ही मन लगा लेते। 

दूसरे शिक्षक गुरुजी अक्षयवर सिंह, हमारे पिताजी के मित्र भी थे। उन्होंने अपनी कोचिंग खोली थी तो स्वाभाविक था कि, हम वहीं कोचिंग में जाते। उस समय अध्यापक भी परिचित खोजा जाता था। विषय का सर्वज्ञानी भले हो, लेकिन ऐसे अध्यापक पढ़ाई के साथ बच्चे के लिए सीसीटीवी भी होते थे, जिसकी निगरानी बिना मोबाइल फोन के पिताजी के द्वारा होती रहती थी। कोचिंग क्लास मैं समय से पहुँचता था, सबसे आगे की कतार में बैठता था। एक दिन कोचिंग क्लास में गए तो सबसे आगे वाली कतार में दूसरे बच्चे बैठ गए थे। मेरी वाली सीट पर बैठे बच्चे से मैंने कहा- यहाँ मैं बैठता हूँ। उसने तुरंत जवाब दिया- तुम्हारा नाम लिखा है क्या। थोड़ी देर में गुरुजी गए तो सारे बच्चे खड़े हुए। आमतौर पर मैं शांत ही रहता था, लेकिन जाने क्या बदमाशी सूझी, मैंने धीरे से पैर से उसकी कुर्सी को थोड़ा पीछे कर दिया। गुरुजी ब्लैकबोर्ड की तरफ मुड़े तो सारे बच्चे बैठ गए और हमारी सीट कब्जाया बच्चा जमीन पर गिरा पड़ा था। उसने शिकायत की और गुरुजी ने डस्टर-डस्टर बहुत मारा। जबकि, गुरुजी के प्रिय बच्चों में से मैं था। सामान्य तौर पर कोई गड़बड़ भी नहीं करता था। पहली और आखिरी बार मुझे वही मार पड़ी थी। पिताजी से यह बताने का साहस भी नहीं था और बताता तो शायद वहाँ भी एकाध पड़ जाती। 

हर शिक्षक दिवस पर मैं अपने जीवन के सभी शिक्षकों को प्रणाम करता हूँ। शिक्षा तो राह चलते जाने कौन-कौन दे जाता है, लेकिन पिताजी के जाने के बाद अब अधिक तीव्रता से अहसास हो रहा है कि, मेरे पक्के वाले शिक्षक मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री कृष्ण चंद्र त्रिपाठी थे, जिन्होंने मेरी एक भी क्लास औपचारिक तौर पर नहीं ली थी। अपना किया अच्छा-बुरा पहचान पाने की सामर्थ्य उन्होंने दी। अपनी गलती स्वीकारने की शक्ति उन्होंने दी। गलत होने पर किसी के सामने तन जाने की भी शक्ति उन्होंने ही दी। जीवन में हर किसी से अच्छी सीखने की भी सीख पिताजी ने ही दी। 

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

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